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________________ ४८६] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र द्वितीय आलोचनाद्वार : आलोचना के दस दोष १९१. दस आलोयणादोसा पन्नत्ता, तं जहा__आकंपइत्ता १ अणुमाणइत्ता २ जं विटुं ३ बायरं व ४ सुहुमं वा ५। छन्नं ६ सद्दाउलयं ७ बहुजण ८ अव्वत्त ९ तस्सेवी १० ॥८॥[दारं २] [१९१] आलोचना के दस दोष कहे हैं। वे इस प्रकार हैं—यथा [गाथार्थ]—(१) आकम्प्य, (२) अनुमान्य, (३) दृष्ट, (४) बादर, (५) सूक्ष्म, (६) छन्न-प्रच्छन्न, (७) शब्दाकुल, (८) बहुजन, (९) अव्यक्त और (१०) तत्सेवी॥८॥ [द्वितीय द्वार] विवेचन—आलोचना के दस दोष—जाने या अनजाने लगे हुए दोषों का पहले स्वयं मन में विचार करना, फिर उचित प्रायश्चित कर लेने के लिए गुरु, आचार्य या बड़े (गीतार्थ) साधु के समक्ष निवेदन करना 'आलोचना' है। वैसे सामान्यतया आलोचना का अर्थ है-अपने दोषों को भलीभांति देखना। आलोचना के दस दोष हैं । साधक को उनका त्याग करके शुद्ध हृदय से आलोचना करनी चाहिए। वे दोष इस प्रकार हैं(१) आकंपइत्ता-आकप्य–प्रसन्न होने पर गुरुदेव मुझे थोड़ा प्रायश्चित्त देंगे, ऐसा सोचकर उन्हें सेवा आदि से प्रसन्न करके फिर आलोचना करना। अथवा कांपते हुए आलोचना करना, ताकि गुरुदेव समझें कि यह दोष का नाम लेते हुए कांपता है, मन. में दोष न करने का खटका है। यह अर्थ भी सम्भव है। (२) अणुमाणइत्ता-अनुमान्य या अणुमान्य—बिलकुल छोटा अपराध बताने से गुरुदेव मुझे बहुत थोड़ा प्रायश्चित देंगे, ऐसा अनुमान करके अपने अपराध को बहुत ही छोटा (अणु) करके बताना। (३) दिट्ठ (दृष्ट)—जिस दोष को गुरु आदि ने सेवन करते देख लिया, उसी की आलोचना करना। (४) बायर (बादर) केवल बड़े-बड़े अपराधों की आलोचना करना और छोटे अपराधों की आलोचना न करना बादर दोष है। (५) सुहम सूक्ष्म-जो अपने छोटे-छोटे अपराधों की आलोचना करता है, बड़े-बड़े अपराधों की आलोचना करना कैसे छोड़ सकता है ? इस प्रकार का विश्वास उत्पन्न कराने हेतु केवल छोटे-छोटे अपराधों की आलोचना करना।(६) छण्ण–छन्न-अधिक लज्जा के कारण आलोचना के समय अव्यक्तशब्द बोलते हुए इस प्रकार के आलोचना करना कि जिसके पास आलोचना करे वह भी सुन न सकें। (७) सद्दाउलयं-शब्दाकुल होकर दूसरे अगीतार्थ व्यक्तिगण सुन सकें, इस प्रकार से उच्चस्वर में बोलना। (८) बहुजणं-बहुजन—एक ही दोष या अतिचार की अनेक साधुओं के पास आलोचना करना। (९) अव्वतं (अव्यक्त)-अगीतार्थ (जिस साधु को पूरा ज्ञान नहीं है कि किस अपराध का, कैसी परिस्थिति में किए हुए दोष का कितना प्रायश्चित्त दिया जाता है) के समक्ष आलोचना करना।(१०) तस्सेवी (तत्सेवी)जिस दोष की आलोचना करनी हो, उसे उसी दोष के सेवन करने वाले आचार्य या बड़े साधु के समक्ष आलोचना करना। ये आलोचना के दस दोष हैं, जिन्हें त्याज्य समझना चाहिए। १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९१९-९२० (ख) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा.७, पृ. ३४८८
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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