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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र छत्तीसवाँ अल्पबहुत्वद्वार : पंचविध संयतों का अल्पबहुत्व
१८८. एएसि णं भंते! सामाइय-छेदोवट्ठावणिए-परिहारविशुद्धिय-सुहुमसंपराय-अहक्खायसंजयाणं कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहिया वा ?
गोयमा! सव्वत्थोवा सुहमसंपरायसंजया, परिहारविसुद्धियसंजया संखेजगुणा, अहक्खायसंजया-संखेजगुणा, छेदोवट्ठावणियसंजया संखेजगुणा, सामाइयसंजया संखेजगुणा।[दारं ३६]। _ [१८८ प्र.] भगवन् ! इन सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धिक, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यातसंयतों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ?
[१८८ उ.] गौतम! सूक्ष्मसंपरायसंयत सबसे थोड़े होते हैं; उनसे परिहारविशुद्धिकसंयत संख्यातगुणे हैं, उनसे यथाख्यातसंयत संख्यातगुणे हैं, उनसे छेदोपस्थापनीयसंयत संख्यातगुणे हैं और उनसे सामायिकसंयत संख्यातगुणे हैं। [छत्तीसवाँ द्वार]
विवेचन—संयतों का अल्पबहुत्व : स्पष्टीकरण-अल्पबहुत्वद्वार में सबसे थोड़े सूक्ष्मसम्परायसंयत बताये हैं, क्योंकि उनका काल अत्यल्प है और वे निर्ग्रन्थ के तुल्य होने से एक समय में शतपृथक्त्व होते हैं। उनसे परिहारविशुद्धिकसंयत संख्यातगुणे हैं, क्योंकि उनका काल सूक्ष्मसम्परायसंयतों से अधिक है और वे पुलाक के समान सहस्रपृथक्त्व होते हैं। उनसे यथाख्यातसंयत संख्यातगुणे हैं, क्योंकि उनका परिमाण कोटिपृथक्त्व हैं। उनसे छेदोपस्थापनीयसंयत संख्यातगुणे हैं, क्योंकि उनका परिमाण कोटिशतपृथक्त्व होता है। उनसे सामायिकसंयत संख्यातगु होते हैं, क्योंकि उनका परिमाण कषायकुशील के समान कोटिसहस्रपृथक्त्व होता
प्रतिसेवना-दोषालोचनादि छह द्वार १८९. पडिसेवण १ दोसारयण य आलोयणारिहे ३ चेव।
तत्तो सामायारी ४ पायच्छित्ते ५ तवे ६ चेव॥६॥ [१८९ गाथार्थ—] (१) प्रतिसेवना, (२) दोषालोचना, (३) आलोचनाह, (४) समाचारी, (५) प्रायश्चित्त और (६) तप ॥६॥
विवेचन-विशेषार्थ-ये छह द्वार प्रायः प्रायश्चित से सम्बन्धित हैं। प्रथम प्रतिसेवनाद्वार में यह देखा जाता है कि किया गया दोष किस प्रकार का है ? द्वितीयद्वार है—आलोचना के दोष । उसका आशय यह है कि लगे हुए दोषों की आलोचना शुद्ध है या किसी दोष से युक्त है ? यदि दोषयुक्त है तो किस प्रकार के दोष से युक्त है ? तृतीयद्वार में आलोचना करने वाले और सुनने वाले दोनों के गुणों का प्रतिपादन है । चतुर्थद्वार हैसमाचारी। उसका आशय यह है कि साधु को किस प्रकार की समाचारी से युक्त होना चाहिए, ताकि संयम में दोष न लगे। पंचमद्वार है—प्रायश्चित्त। जिसका आशय यह है कि आलोचना के बाद दोषसेवन करने वाले साधु को किस प्रकार का प्रायश्चित आता है, इसका निर्णय करना चाहिए। छठा द्वार है- तप । प्रायश्चित्त में अमुक तप-विशेष भी दिया जाता है, इसलिए तप का १२ भेदों सहित वर्णन किया गया है। १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९१८-९१९