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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [१६० प्र.] भगवन् ! (अनेक) छेदोपस्थापनीयसंयत कितने काल रहते हैं ? [१६० उ.] गौतम! जघन्य अढाई सौ वर्ष और उत्कृष्ट पचास लाख करोड़ सागरोपम तक होते हैं। १६१. परिहारविसुद्धिए पुच्छा। गोयमा! जहन्नेणं देसूणाई दो वाससयाई, उक्कोसेणं देसूणाओ दो पुवकोडीओ। [१६१ प्र.] भगवन् ! (अनेक) परिहारविशुद्धिकसंयत कितने काल तक रहते हैं ? . [१६१ उ.] गौतम! वह जघन्य देशान दो सौ वर्ष और उत्कृष्ट देशोन दो पूर्वकोटिवर्ष तक होते हैं। १६२. सुहुमसंपरागसंजया० पुच्छा। गोयमा! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमहत्तं। [१६२ प्र. भगवन् ! (अनेक) सूक्ष्मसम्परायसंयत कितने काल तक रहते हैं ? [१६२ उ.] गौतम! वे जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक रहते हैं। १६३. अहक्खायसंजया जहा सामाइयसंजया। [ दारं २९]
[१६३](बहुत) यथाख्यातसंयतों का कथन (सू. १५९ में उक्त) सामायिकसंयतों के समान जानना चाहिए।
विवेचन—सामायिक आदि संयतों की स्थिति : स्पष्टीकरण सामायिकचारित्र (संयम) की प्राप्ति के बाद तुरन्त ही मृत्यु हो जाए तो उसकी अपेक्षा से सामायिकसंयत का काल जघन्य एक समय होता है और उत्कृष्ट देशोन नौ वर्ष कम पूर्वकोटिवर्ष होता है। वह काल गर्भ के समय से गिनना चाहिए।
परिहारविशुद्धिकसंयत का जघन्यकाल एक समय मरण की अपेक्षा से है और उत्कृष्ट देशोन उनतीस वर्ष कम पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण होता है क्योंकि पूर्वकोटिवर्ष की आयु वाला कोई मनुष्य यदि देशान नौ वर्ष की उम्र में दीक्षा ग्रहण करता है तो वह बीस वर्ष की दीक्षापर्याय होने पर दृष्टिवाद का ज्ञान प्राप्त करके पश्चात् परिहारविशुद्धिसंयम (चारित्र) को अंगीकार कर सकता है। यद्यपि परिहारविशुद्धिचारित्र का कालपरिमाण अठारह मास का है तथापि उन्हीं अविच्छिन्न परिणामों से वह उसे जीवनपर्यन्त पाले तो उनतीस वर्ष कम पूर्वकोटिवर्षपर्यन्त रहता है।
यथाख्यातसंयत का कालपरिमाण उपशम अवस्था में मरण की अपेक्षा जघन्य एक समय तथा स्नातक अवस्था वाले संयत की अपेक्षा देशोन पूर्वकोटिवर्ष है।
उत्सर्पिणीकाल में प्रथम तीर्थंकर के तीर्थ तक छेदोपस्थापनीयचारित्र होता है और उनका तीर्थ (शासन) अढाई सौ वर्ष चलता है। इसलिए छेदोपस्थापनीय संयतों का काल जघन्य अढाई सौ वर्ष होता है। अवसर्पिणीकाल में प्रथम तीर्थंकर के तीर्थ तक छेदोपस्थापनीयचारित्र होता है और उनका तीर्थ पचास लाख करोड़ सागरोपम तक होता है । इसलिए उत्कृष्ट इतने काल तक छेदोपस्थापनीयसंयत होते हैं।
परिहारविशुद्धिकसंयतों का काल जघन्य अट्ठावन वर्ष कम, देशोन दो सौ वर्ष होता है। यथाउत्सर्पिणीकाल में प्रथम तीर्थंकर के समीप सौ वर्ष की आयु वाले कोई मुनि परिहारविशुद्धिचारित्र अंगीकार करे