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पच्चीसवां शतक : उद्देशक-७]
[४५५ गोयमा ! जहन्नेणं अट्ठ पवयणमायाओ, उक्कोसेणं चोद्दसपुव्वाई अहिज्जेजा, सुतवतिरित्ते वा होजा। [ दारं ७]
[४२ प्र.] भगवन् ! यथाख्यातसंयत कितने श्रुत का अध्ययन करता है ?
[४२ उ.] गौतम ! वह जघन्य अष्ट प्रवचनमाता का और उत्कृष्ट चौदहपूर्व तक का अध्ययन करता है अथवा वह श्रुतव्यतिरिक्त (केवली) होता है। [सप्तम द्वार]
विवेचन यथाख्यातसंयत में पांच ज्ञान विकल्प से : क्यों और कैसे ?–यथाख्यातसंयत में पांच ज्ञान भजना से इसलिए कहे गए हैं कि यथाख्यातसंयत दो प्रकार के होते हैं—केवली और छद्मस्थ। केवली यथाख्यातसंयत में एकमात्र केवलज्ञान ही होता है। किन्तु छद्मस्थ यथाख्यातसंयत में दो, तीन या चार ज्ञान होते हैं । इसके लिए आठवें शतक के द्वितीय उद्देशक (के. सू. १०६) का अतिदेश किया गया है।'
यथाख्यातसंयत का श्रृताध्ययन-यथाख्यातसंयत यदि 'निर्ग्रन्थ' होते हैं तो उनके जघन्य अष्ट प्रवचनमाता का और उत्कृष्ट चौदह पूर्व का श्रुत पढ़ा हुआ होता है। यदि वे स्नातक होते हैं तो वे श्रुतातीतकेवली होते हैं। अष्टम तीर्थद्वार : पंचविधि संयतों में तीर्थ-अतीर्थ-प्ररूपणा
४३. सामाइयसंजए णं भंते ! किं तित्थे होजा, अतित्थे होज्जा ? गोयमा ! तित्थे वा होजा, अतित्थे वा होजा जहा कसायकुसीले ( उ० ६ सु० ५५)। [४३ प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत तीर्थ में होता है अथवा अतीर्थ में होता है ?
[४३ उ.] गौतम ! वह तीर्थ में भी होता है और अतीर्थ में भी, इत्यादि सब वर्णन (उ.६, सू. ५५ में कथित) कषायकुशील के समान कहना चाहिए।
४४. छेदोवट्ठावणिए परिहारविसुद्धिए य जहा पुलाए ( उ० ६ सु० ५३)।
[४४] छेदोपस्थापनीय और परिहारविशुद्धिकसंयत का कथन (उ. ६, सू. ५३ में उक्त) पुलाक के समान जानना चाहिए।
४५. सेसा जहा सामाइयसंजए। [दारं ८]
[४५] शेष सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात संयत की वक्तव्यता सामायिकसंयत के समान जानना चाहिए। [आठवां द्वार]
विवेचन—सामायिक, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात संयत तीर्थ और अतीर्थ दोनों में होते हैं। तीर्थंकर के तीर्थ का विच्छेदन हो जाने पर दूसरे साधु अतीर्थ में होते हैं तथा कई तीर्थंकर या प्रत्येकबुद्ध तीर्थ क विना सामायिकचारित्र का पालन करते हैं । वे भी अतीर्थ में होते हैं। छेदोपस्थापनीय और परिहारविशुद्धिक संयत तीर्थ में होते हैं। १. भगवती. अ. वृत्ति पत्र ९११ २. वही, पत्र ९११