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और परमशुक्ल ये दो भेद हैं। चतुर्दशपूर्वधर तक का ध्यान शुक्लध्यान है और केवलज्ञानी का ध्यान परमशुक्ल ध्यान है।
स्वरूप की दृष्टि से शुक्लध्यान के चार प्रकार भगवती, स्थानांग, समवायांग आदि में बताये हैं
१. पृथक्त्ववितर्कसविचार—पृथक्त्व का अर्थ है-भेद और वितर्क का तात्पर्य है—श्रुत । प्रस्तुत ध्यान में श्रुतज्ञान के आधार पर पदार्थ का सूक्ष्मातिसूक्ष्म चिन्तन किया जाता है। द्रव्य, गुण, पर्याय पर चिन्तन करते हुए द्रव्य से प्रर्याय पर और पर्याय से द्रव्य पर चिन्तन किया जाता है। इस ध्यान में भेदप्रधान चिन्तन होता
२. एकत्ववितर्कअविचार—अब भेदप्रधान चिन्तन में साधक का अन्तर्मानस स्थिर हो जाता है तब वह अभेदप्रधान चिन्तन की ओर कदम बढ़ाता है। वह किसी एक पर्यायरूप अर्थ पर चिन्तन करता है तो उसी पर्याय पर उसका चिन्तन स्थिर रहेगा। जिस स्थान पर तेज हवा का अभाव होता है, वहाँ पर दीपक की लौ इधर-उधर डोलती नहीं है। उस दीपक को मंद हवा मिलती रहती है, वैसे ही प्रस्तुत ध्यान में साधक सर्वथा निर्विचार नहीं होता किन्तु एक ही वस्तु पर उसके विचार केन्द्रित होते हैं।
३. सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाति—यह ध्यान बहुत ही सूक्ष्म क्रिया पर चलता है। इस ध्यान में अवस्थित होने पर योगी पुन: ध्यान से विचलित नहीं होता, इस कारण इस ध्यान को सूक्ष्मक्रिया-अप्रतिपाति कहा है। यह ध्यान केवल वीतरागी आत्मा को ही होता है। जब केवलज्ञानी का आयुष्य केवल अन्तर्मुहूर्त अवशेष रहता है, उस समय योगनिरोध का क्रम प्रारम्भ होता है । मनोयोग और वचनयोग का पूर्ण निरोध हो जाने पर जब केवल सूक्ष्म काययोग से श्वासोच्छ्वास ही अवशेष रह जाता है, उस समय का ध्यान ही सूक्ष्मक्रिया-अप्रतिपाति ध्यान है। इसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में ही आत्मा अयोगी बन जाता है।
४. समुच्छिन्नक्रिय-अनिवृत्ति-जब आत्मा सम्पूर्ण रूप से योगों का निरुन्धन कर लेता है तो समस्त यौगिक चंचलता समाप्त हो जाती है। आत्मप्रदेश सम्पूर्ण रूप से निष्कम्प बन जाते हैं। सूक्ष्मक्रिय-अप्रतिपाति ध्यान में श्वासोच्छ्वास की क्रिया जो शेष रहती है, वह भी इस भूमिका पर पहुँचने पर समाप्त हो जाती है। यह परम निष्कम्प और सम्पूर्ण क्रिया-योग से मुक्त ध्यान की अवस्था है। यह अवस्था प्राप्त होने पर पुनः आत्मा पीछे नहीं हटता इसीलिए इसका नाम समुच्छिन्नक्रिय-अनिवृत्ति शुक्लध्यान दिया है। इस ध्यान के दिव्य प्रभाव से वेदनीयकर्म, नामकर्म, गोत्रकर्म और आयुष्यकर्म नष्ट हो जाते हैं और अरिहन्त, सिद्ध बन जाते हैं। शुक्लध्यान के प्रारम्भ के दो प्रकार सातवें गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक होते हैं। तीसरा प्रकार तेरहवें गुणस्थान में होता है और चौथा प्रकार चौदहवें गुणस्थान में। प्रथम के दो ध्यानों में श्रुत का आलम्बन होता है। अन्तिम दो प्रकारों में आलम्बन नहीं होता। ये दोनों ध्यान निरवलम्ब हैं।
शुक्लध्यानी आत्मा के चार चिह्न बताये गये हैं, जिससे शुक्लध्यानी की पहचान होती है। वे हैं
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तत्त्वार्थसूत्र ९/३९-४० भगवती २५/७ स्थानांग ४/१० समवायांग ४
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