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________________ पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक-३] [३०५ परिमण्डल है, वह जघन्य चालीस प्रदेशों वाला और चालीस आकाशप्रदेशों में अवगाढ़ होता है तथा उत्कृष्ट अनन्त प्रदेशिक और असंख्यात आकाशप्रदेशों में अवगाढ़ होता है। विवेचन—परिमण्डल का कथन पहले क्यों नहीं—पांच संस्थानों में प्रथम परिमण्डल संस्थान है, उसका कथन पहले किया जाना चाहिए, किन्तु यहाँ परिमण्डल को छोड़कर 'वृत्त', 'व्यस्त्र' आदि क्रम से कथन किया गया है। उसका कारण यह है कि इन चारों में सम-प्रदेशों और विषम-प्रदेशों का कथन होने से सभी में प्रायः समानता है। इसलिए पहले इनका कथन और बाद में परिमण्डल का कथन किया गया है। अथवा सत्र का क्रम विचित्र होने से इस प्रकार का कथन किया है। ओज और युग्म की परिभाषा-एक, तीन, पांच आदि विषम (एकी वाली) संख्या को 'ओज' कहते हैं और दो, चार, छः आदि सम (बेकी वाली—जोड़े वाली) संख्या को 'युग्म' कहते हैं। घनवृत्त और प्रतरवृत्त का स्वरूप लड्डू अथवा गेंद के समान जो गोल हो, उसे 'घनवृत्त' कहते हैं, और मण्डक—(पकाया हुआ एक प्रकार का अन्न) के समान, जो गोल होने पर भी मोटाई में कम हो, उसे 'प्रतरवृत्त' कहते हैं। प्रतरवृत्त और घनवृत्त का रेखाचित्र-ओजप्रदेशी प्रतरवृत्त—में दो प्रदेश ऊपर, TOO एक प्रदेश बीच में और दो प्रदेश नीचे होते हैं । यथा युग्मप्रदेशी प्रतरवृत्त—में बारह प्रदेश होते हैं, जिनमें दो प्रदेश ऊपर, उससे नीचे चार प्रदेश, उसके नीचे फिर चार प्रदेश और उसके नीचे दो प्रदेश होते हैं यथा ओजप्रदेशी घनवृत्त—में सात प्रदेश होते हैं । एक मध्य परमाणु के ऊपर एक परमाणु और नीचे भी एक परमाणु तथा उसके चारों ओर चार परमाणु होते हैं। 1000 युग्मप्रदेशी घनवृत्त—में बत्तीस प्रदेश होते हैं। उनमें से दो ऊपर, चार नीचे, फिर चार नीचे और उनके नीचे दो प्रदेश ०० २/२ स्थापित करने चाहिए। उसके ऊपर इसी प्रकार का बारह प्रदेशों | 0000 ||४|४| का दूसरा प्रतर रखना चाहिए और दोनों प्रतरों के मध्य भाग के | 0000 |२|४|४|२ चार प्रदेशों में ऊपर दूसरे चार प्रदेश ऊपर और चार प्रदेश नीचे | ०० रखना चाहिए। ओज-प्रदेशिक घनत्र्यस्त्र—यह पैंतीस प्रदेशों का होता है। उसमें प्रथम इस प्रकार १५ प्रदेशों के प्रतर ००००० 0000 ०००० पर 000 दूसरे स्तर पर प्रदेशों का प्रतर 800 पर तीसरे छह प्रदेशों का प्रतर - उस ०० 10.01 0000००० २२ पर चौथा तोन प्रदेशों का प्रतर 00 और उस पर एक परमाणु (प्रदेश) ० रखना चाहिए। घनत्र्यस्र के चार भेदों में से तीसरे भेद का यह आकार दिया है। शेष तीन भेदों का कथन अर्थ में दे दिया गया है। १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८६१
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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