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पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक-२]
[२९३ [२०] इसी प्रकार यावत् जिह्वेन्द्रिय-पर्यन्त जानना। २१. फासिदियत्ताए जहा ओरालियसरीरं। [२१] स्पर्शेन्द्रिय के विषय में औदारिकशरीर के समान समझना चाहिए। २२. मणजोगत्ताए जहा कम्मगसरीरं, नवरं नियमं छद्दिसिं।
[२२] कार्मणशरीर की वक्तव्यता के समान मनोयोग की वक्तव्यता समझनी चाहिए तथा नियम से छहों दिशाओं से आए हुए द्रव्यों को ग्रहण करता है।
२३. एवं वइजोगत्ताए वि। [२३] इसी प्रकार वचनयोग के द्रव्यों के विषय में भी समझना चाहिए। २४. कायजोगत्ताए जहा ओरालियसरीरस्स। [२४] काययोग के रूप में ग्रहण का कथन औदारिकशरीर विषयक कथनवत् है। २५. जीवे णं भंते ! जाई दव्वाइं आणापाणुत्ताए गेण्हइ ? जहेव ओरालियसरीरत्ताए जाव सिय पंचदिसि। [२५ प्र.] भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करता है .......? इत्यादि प्रश्न।
[२५ उ.] गौतम ! औदारिकशरीर-सम्बन्धी कथन के समान इस विषय में कहना चाहिए, यावत् कदाचित् पांच दिशा से आए हुए द्रव्यों को ग्रहण करता है।
२६. केयि चउवीसदंडएणं एयाणि पयाणि भणंति, जस्स जं अत्थि। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति।
॥पंचवीसइमे सए : बितिओ उद्देसओ समत्तो॥२५-२॥ [२६] कई आचार्य चौवीस दण्डकों पर इन पदों को कहते हैं, किन्तु जिसके जो (शरीर, इन्द्रिय, योग आदि) हो, वही उसके लिए यथायोग्य कहना चाहिए। ___हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते
विवेचन—स्थितद्रव्य : अस्थितद्रव्य : परिभाषा—स्थितद्रव्य-जीव जितने आकाशक्षेत्र में रहा हुआ है, उसी क्षेत्र के अन्दर रहे हुए जो पुद्गलद्रव्य हैं, वे स्थितिद्रव्य हैं, और उस क्षेत्र से बाहर रहे हुए द्रव्य अस्थितद्रव्य कहलाते हैं । वहाँ से आकर्षित करके जीव उन्हें ग्रहण करता है। इस विषय में किन्हीं आचार्यों का मत है कि गतिरहित द्रव्य स्थितद्रव्य और गतिसहित द्रव्य अस्थित द्रव्य कहलाते हैं।' ___वैक्रियशरीर द्वारा कितनी दिशाओं से द्रव्य-ग्रहण-वैक्रियशरीरी जीव वैक्रियशरीर के योग्य १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८५७ .