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________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक-२] [२९१ पुद्गलों का पृथक् हो जाना। उपचय स्कन्धरूप पुद्गलों का दूसरे पुद्गलों के सम्पर्क से बढ़ जाना। अपचय स्कन्धरूप पुद्गलों में से प्रदेशों के पृथक् हो जाने से उस स्कन्ध का कम हो जाना। इन्हीं चार बातों के लिए शास्त्रकार ने चार शब्दों का उल्लेख किया है—चिजंति, छिजंति, उवचिजंति, अवचिजति। शरीरादि के रूप में स्थित-अस्थित द्रव्य-ग्रहण-प्ररूपणा ११. जीवे णं भंते ? जाई दव्वाइं ओरालियसरीरत्ताए गेण्हइ ताई किं ठियाइं गेण्हइ, अठियाई गेण्हति ? गोयमा ! ठियाई पि गेण्हइ, अठियाई पि गेण्हइ। [११ प्र.] भगवन् ! जीव जिन पुद्गलद्रव्यों को औदारिकशरीर के रूप में ग्रहण करता है, क्या वह उन स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है या अस्थित द्रव्यों को? [११ उ.] गौतम ! वह स्थित द्रव्यों को भी ग्रहण करता है और अस्थित द्रव्यों को भी। १२. ताई भंते ! किं दव्वओ गेण्हइ, खेत्तओ गेण्हइ, कालओ गेण्हइ, भावतो गेण्हइ ? गोयमा ! दव्वओ वि गेहति, खेत्तओ वि गेण्हइ, कालओ वि गेण्हइ, भावओ वि गेण्हइ। ताई दव्वओ अणंतपएसियाई दव्वाइं, खेत्तओ असंखेजपएसोगाढाइं, एवं जहा पण्णवणाए पढमे आहारुद्देसए जाव निव्वाघाएणं छद्दिसि, वाघायं पडुच्च सिय तिदिसि, सिय चउदिसिं, सिय पंचदिसिं। । [१२ प्र.] भगवन् ! (जीव) उन द्रव्यों को, द्रव्य से ग्रहण करता है या क्षेत्र से, काल से या भाव से ग्रहण करता है ? [१२ उ.] गौतम ! वह उन द्रव्यों को द्रव्य से भी ग्रहण करता है, क्षेत्र से भी, काल से भी और भाव से भी ग्रहण करता है। द्रव्य से-वह अनन्तप्रदेशी द्रव्यों को ग्रहण करता है, क्षेत्र से—असंख्येय-प्रदेशावगाढ द्रव्यों को ग्रहण करता है, इत्यादि, जिस प्रकार प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम आहार-उद्देशक में कहा है, तदनुसार यहाँ भी यावत्-निर्व्याघात से छहों दिशाओं से और व्याघात. हो तो कदाचित् तीन कदाचित् चार और कदाचित् पांच दिशाओं से आए हुए पुद्गलों को ग्रहण करता है, (यहाँ तक कहना चाहिए)। १३. जीवे णं भंते ! जाई दव्वाइं वेउब्वियसरीरत्ताए गेण्हइ ताई किं ठियाई गेण्हति, अठियाई गेण्हति ? एवं चेव, नवरं नियम छदिसिं। ___ [१३ प्र.] भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को वैक्रियशरीर के रूप में ग्रहण करता है, तो क्या वह स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है या अस्थित द्रव्यों को ? [१३ उ.] गौतम ! इसी प्रकार पूर्ववत् समझना। विशेष यह है कि जिन द्रव्यों को वैक्रियशरीर के रूप १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८५६-५८७ (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. ७, पृ. ३२०७-३२०८
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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