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पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक-१]
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जघन्य और उत्कृष्ट योग के अल्पबहुत्व का यंत्र
१२
१३
सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त
सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त
बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त
बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त
द्वीन्द्रिय अपर्याप्त
द्वीन्द्रिय पर्याप्त
त्रीन्द्रिय अपर्याप्त
त्रीन्द्रिय पर्याप्त
चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त
चतुरिन्द्रिय पर्याप्त
असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त
असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त
संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त
संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त
जघन्य
जघन्य
जघन्य
जघन्य
जघन्य
जघन्य २४
जघन्य
जघन्य
१५
जघन्य
जघन्य
जघन्य
जघन्य
जघन्य
जघन्य
28
.
उत्कृष्ट
१०
उत्कृष्ट
१२
उत्कृष्ट
उत्कृष्ट
११
उत्कृष्ट २४ उत्कृष्ट
२०
. उत्कृष्ट
२५
उत्कृष्ट
उत्कृष्ट
२१ उत्कृष्ट
२६ उत्कृष्ट
२२
उत्कृष्ट
२७. उत्कृष्ट
२३ उत्कृष्ट .२८
[२] से केणद्वेशं भंते ! एवं वुच्चति—सिय समजोगी, सिय विषमजोगी ?
गोयमा ! आहारयाओ वा से अणाहारए, अणाहारयाओ वा से आहारए सिय हीणे, सिय तुल्ले, सिय अब्भहिए। जदि हीणे असंखेजतिभागहीणे वा संखेजतिभागहीणे वा, संखेजगुणहीणे वा असंखेजगुणहीणे वा। अह अब्भहिए असंखेजतिभागमब्भहिए वा संखेजतिभागमब्भहिए वा, संखेजगुणमब्भहिए वा असंखेजगुणमब्भहिए वा। से तेणटेणं जाव सिय विसमजोगी।
[६-२ प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि कदाचित् समयोगी और कदाचित् विषमयोगी होते
[६-२ उ.] गौतम ! आहारक नारक से अनाहारक नारक और अनाहारक नारक से आहारक नारक कदाचित् हीनयोगी, कदाचित् तुल्ययोगी और कदाचित् अधिकयोगी होता है। (अर्थात्-आहारक नारक से अनाहारक नारक हीन योग वाला, अनाहारक नारक से आहारक नारक अधिक योग वाला और दोनों आहारक या दोनों अनाहारक नारक परस्पर तुल्य योग वाले होते हैं।) यदि वह हीन योग वाला होता है तो असंख्यातवें भागहीन, संख्यातवें भागहीन, संख्यातगुणहीन या असंख्यातगुणहीन होता है। यदि अधिक योग वाला होता है
१. श्रीमद् भगवतीसूत्रम् चतुर्थखण्ड (गुजराती अनुवादसहित), पृ. १९९