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पच्चीसवाँ शतक : प्राथमिक ]
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दूसरे उद्देशक में द्रव्यों की चर्चा की है। मनुष्य जीव द्रव्य में है और चेतनाहीन द्रव्य अजीव हैं । इनमें किसकी संख्या अधिक है ? कौन किसको प्रभावित करता है ? अथवा जीव द्रव्य अजीव द्रव्यों के परिभोग में आते हैं या अजीव द्रव्य जीव द्रव्य के परिभोग में आते हैं ? इसका रहस्य खोलते हुए इस उद्देशक में शास्त्रकार ने जीव की शक्ति को अनन्त और प्रबल बताते हुए कहा है कि जीव द्रव्य अजीव द्रव्य के परिभोग में नहीं आते हैं, अजीव द्रव्य ही जीव द्रव्य के परिभोग में आते हैं। फिर यह प्रश्न भी उठाया गया है कि असंख्यातप्रदेशात्मक लोकाकाश में जीव और अजीव रूप अनन्त द्रव्य कैसे समा सकते हैं ? साथ ही यह भी बताया गया है कि जीव जिस आकाशप्रदेश में रहा हुआ हैं, उसी क्षेत्र के अन्दर रहे हुए पुद्गल स्थितद्रव्य हैं, उससे बाहर क्षेत्र में रहे हुए पुद्गल अस्थितद्रव्य हैं। उन्हें जीव वहाँ से खींच कर ग्रहण करता है द्रव्य-क्षेत्रकाल और भाव से भी तथा वह (जीव) पांच शरीर, पांच इन्द्रिय, तीन योग और श्वासोच्छ्वास; इन चौदह के रूप में यथायोग्य ग्रहण भी करता है। इन्हीं से फिर कर्मबन्ध और उनसे जन्ममरण-परम्परा को बढ़ाता है । साधक को इनसे सावधान रहने का संकेत किया गया है।
तीसरे उद्देशक में बताया गया है कि जिस प्रकार जीव के छह संस्थान होते हैं, उसी प्रकार अजीव द्रव्य के भी परिमण्डल आदि छह संस्थान होते हैं। उनका अल्पबहुत्व एवं संख्यापरिमाण भी यहाँ बताया है तथा रत्नप्रभादि पृथ्वियों में कौन से संस्थान कितने हैं ? कौन - सा संस्थान कितने प्रदेश का तथा कितने प्रदेशों में अवगाढ़ है ? वे कृतयुग्म हैं या त्र्योज, द्वापरयुग्म या कल्योजरूप हैं ? अन्त में लोकाकाश और अलोकाकाश की श्रेणियों की चर्चा की गई है। साथ ही जीवों और पुद्गलों की अनुश्रेणि गति और विश्रेणी गति का प्रतिपादन किया गया है।
इसके पश्चात् इस उद्देशक में इस प्रकार के सूक्ष्म सैद्धान्तिक ज्ञान के प्रदाता गणिपिटक (द्वादशांग ) का भी उल्लेख किया है, जिससे साधक सूक्ष्म सैद्धान्तिक ज्ञान प्राप्त कर सके । अन्त में चारों गतियों के तथा सिद्ध गति के जीवों के एवं सइन्द्रिय, एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय एवं अनिन्द्रिय जीवों के तथा जीवों और पुद्गलों के अल्प - बहुत्व की प्ररूपणा की गई हैं।
इस प्रकार के सूक्ष्म सैद्धान्तिक ज्ञान का प्रयोजन यह है कि साधक आत्मा की व्यापकता, अनन्त शक्तिमत्ता एवं अवगाहन क्षमता आदि को जान सके तथा आयु आदि कर्मों के बन्ध से बच सके।
चतुर्थ उद्देशक में नैरयिक से लेकर वैमानिकों तक चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में कृतयुग्म आदि की चर्चा करके फिर धर्मास्तिकाय आदि षट्द्रव्यों में भी उसी चर्चा की है। तत्पश्चात् द्रव्यार्थ से और प्रदेशार्थ से सभी जीवों के कृतयुग्मादि की, कृतयुग्मप्रदेशावगाढ़ आदि की तथा कृतयुग्मादि