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________________ चौवीसवाँ शतक : उद्देशक-२४] [२७३ ___ २९. सो चेव अप्पणा उक्कोसकालट्ठितीओ जाओ, एस चेव वत्तव्वता, नवरं ओगाहणा जहन्नेणं पंच धणुसयाई, उक्कोसेण वि पंच धणुसयाई। ठिती जहन्नेणं पुव्वकोडी, उक्कोसेण वि पुव्वकोडी।सेसं तहेव जाव भवाएसो त्ति। कालाएसेणं जहन्नेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं दोहिं पुव्वकोडीहिं अब्भहियाइं, उक्कोसेणं वि तेत्तीसं सागरोवमाई दोहिं पुव्वकोडीहिं अब्भहियाइं; एवतिय कालं सेवेजा, एवतियं कालं गतिरागतिं करेजा।[तइओ गमओ ]। एते तिन्नि गमगा सव्वट्ठसिद्धगदेवाणं। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति भगवं गोयमे जाव विहरइ। ॥ चउवीसतिमे सए : चउवीसतिमो उहेसो समत्तो॥२४-२४॥ . ॥समत्तं च चउवीसतिमं सयं ॥ २४॥ [२९] यदि वह (संज्ञी मनुष्य) स्वयं उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला हो तो यही पूर्वोक्त वक्तव्यता जाननी चाहिए। किन्तु इसकी अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष है। इसकी स्थिति जघन्य दो पूर्वकोटि है। शेष सब पूर्ववत् यावत् भवादेश तक। काल की अपेक्षा से जघन्य दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम और उत्कृष्ट भी दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम; इतना काल सेवन (यापन) करता है और इतने काल तक गमनागमन करता है। [तीसरा गमक] । सर्वार्थसिद्ध देवों में ये तीन गमक होते हैं। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते विवेचन—आनत से सर्वार्थसिद्धि तक गमकों की प्ररूपणा-(१) आनतदेव तिर्यञ्चों में आकर उत्पन्न नहीं होता। (२) विजय आदि जघन्य तीन और उत्कृष्ट सात भव ग्रहण करते हैं। आनतादि देव मनुष्य से आकर ही उत्पन्न होते हैं । वहाँ से च्यवकर भी मनुष्य गति में आते हैं । इस प्रकार जघन्य तीन भव और उत्कृष्ट आनत से अच्युत एवं ग्रैवेयक तक ७ भव करता है, विजयादि में जघन्य ३ और उत्कृष्ट ५ भव ग्रहण करता है तथा सर्वार्थसिद्ध देव में तीन भव ग्रहण करता है। (३) आनतादि का संवेध-आनत से अच्युत देव तक में संज्ञी मनुष्य के ४ भवसम्बन्धी उत्कृष्ट स्थिति चार पूर्वकोटि और आनत देव की तीन भव सम्बन्धी उत्कृष्ट स्थिति ५७ सागरोपम की होती है । आनतदेव का उत्कृष्ट संवेध चार पूर्वकोटि अधिक ५७ सागरोपम का होता है। इसी प्रकार आगे के देवलोकों की स्थिति का विचार कर संवेध जानना चाहिए। ॥ चौवीसवाँ शतक : चौवीसवाँ उद्देशक समाप्त॥ ॥ चौवीसवाँ शतक सम्पूर्ण॥ *** १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८५१
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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