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चौवीसवाँ शतक : उद्देशक - २३]
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अधिक पल्योपम कहा है, इसका कारण यह है कि वह इतनी ही स्थिति वाले ज्योतिष्क देव में उत्पन्न होने वाला है, क्योंकि असंख्यात वर्ष की आयु वाले जीव अपने से अधिक आयु वाले देवों में उत्पन्न नहीं होते । यह पहले भी कहा जा चुका है।
(३) चौथे गमक में जघन्य काल की स्थिति वाले की उत्पत्ति औधिक ज्योतिष्क में बताई है, सो असंख्यात वर्ष की आयु वाला जीव तो पल्योपम के आठवें भाग से कम जघन्य आयु वाला हो सकता है, किन्तु ज्योतिष्क देवों में इससे कम आयु नहीं है। असंख्येय वर्षायुष्क अपनी आयु के समान उत्कृष्ट देवायु बन्धक होते हैं। इसलिए जघन्य स्थिति वाले वे पल्योपम के आठवें भाग की स्थिति वाले होते हैं । प्रथम कुलकर विमलवाहन के पूर्वकाल में होने वाले हस्ती आदि की यह स्थिति थी । इसी प्रकार औधिक ज्योतिष्क देव भी उस उत्पत्तिस्थान को प्राप्त होते हैं ।
(४) अवगाहना-विषयक — यहाँ जो अवगाहना धनुषपृथक्त्व की कही गई हैं, वह भी विमलवाहन कुलकर से पूर्व होने वाले पल्योपम के आठवें (2) भाग की स्थिति वाले हस्ती आदि से भिन्न क्षुद्रकाय चतुष्पदों की अपेक्षा जाननी चाहिए और उत्कृष्ट अवगाहना सातिरेक १८०० धनुष की कही है, वह विमलवाहन कुलकर से पूर्व होने वाले हस्त्यादि की अपेक्षा से जाननी चाहिए, क्योंकि विमलवाहन कुलकर की अवगाहना ९०० धनुष की थी और उस समय में होने वाले हस्ती आदि की अवगाहना उससे दुगनी थी तथा उससे पहले समय में होने वाले हस्ती आदि की अवगाहना सातिरेक १८०० धनुष की थी।
(५) चौथे गमक की जो वक्तव्यता है, उसी में पांचवें और छठे गमक का अन्तर्भाव कर दिया गया है। क्योंकि पल्योपम के आठवें भाग की आयुवाले यौगलिक तिर्यञ्चों की पांचवें और छठे गमक में भी पल्योपम के आठवें भाग की ही आयु होती है ।
(६) सप्तम आदि गमकों में तिर्यञ्चों की तीन पल्योपम की स्थिति होती हैं, जो उत्कृष्ट ही है। ज्योतिष्क देव की सातवें गमक में जघन्य और उत्कृष्ट, यह प्रकार की स्थिति होती है।
(७) आठवें गमक में स्थिति पल्योपम के आठवें (1⁄2) भाग तथा नौवें गमक में सातिरेक पल्योपम होती है। (८) इसी के अनुसार संवेध करना चाहिए ।
(९) इस प्रकार पहला, दूसरा, तीसरा, ये तीन गमक, मध्य में तीन गमकों के स्थान में एक ही गमक और अन्तिम तीन गमक, यों कुल मिलाकर ये सात' गमक होते हैं।
ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होने वाले संख्यात वर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में उपपातादि वीस द्वारों का निरूपण
९. जइ संखेज्जवासाउयसन्निपंचेदिंय० ?
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८४८
(ख) भगवती (हिन्दी विवेचन) भा. ६, पृ. ३१७३-३१७४