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________________ कर्म एक हजार वर्ष तक असह्य वेदना सहन कर नरक का जीव नष्ट कर सकता है। भगवान् ने समाधान दिया—नहीं। गौतम ने पुनः पूछा-भगवन् ! आप किस दृष्टि से ऐसा कहते हैं ? भगवान् ने कहा—जैसे एक वृद्ध, जिसका शरीर जर्जरित हो चुका है, जिसके दांत गिर चुके हैं, जो अनेक दिनों से भूखा है, वह वृद्ध परशु लेकर एक विराट् वृक्ष को काटना चाहता है और इसके लिए वह मुँह से जोर का शब्द भी करता है, तथापित् वह उस वृक्ष को काट नहीं पाता। वैसे ही नैरयिक जीव तीव्र कर्मों को भयंकर वेदना सहन करने पर भी नष्ट नहीं कर पाता । पर जैसे उस विराट् वृक्ष को एक युवक देखते-देखते काट देता है, वैसे ही श्रमण निर्ग्रन्थ सकामनिर्जरा से कर्मों को शीघ्र नष्ट कर देते हैं। इसी तथ्य को भगवतीसूत्र के शतक ६, उद्देशक १ में स्पष्ट किया है कि नैरयिक जीव महावेदना का अनुभव करने पर भी महानिर्जरा नहीं कर पाता जबकि श्रमण निर्ग्रन्थ अल्पवेदना का अनुभव करके भी महानिर्जरा करता है। जैसे मजदूर अधिक श्रम करने पर भी कम अर्थलाभ प्राप्त करता है और कारीगर कम श्रम करके अधिक अर्थलाभ प्राप्त करता है। संत जीवन की महिमा और प्रकार जैन साहित्य में सन्त की महिमा और गरिमा का यत्र-तत्र उल्लेख हुआ है। सन्त का जीवन एक अनूठा जीवन होता है। वह संसार में रहकर भी संसार के विषय-विकारों से अलिप्त रहता है। अलिप्त रहने से उसके जीवन में सुख का सागर लहराता रहता है। गणधर गौतम के अन्तर्मानस में यह जिज्ञासा उबुद्ध हुई कि श्रमण के जीवन में सुख की मात्रा कितनी है ? देवगण परम सुखी कहलाते हैं तो क्या श्रमण का सुख देवताओं के सुख से कम है या ज्यादा ? उन्हाने अपनी जिज्ञासा भगवान् महावीर के सामने प्रस्तुत की। महावीर ने गौतम की जिज्ञासा का समाधान करते हुए कहा—तराजू के एक पलड़े में जिस श्रमण की दीक्षापर्याय एक मास की हुई हो, उसके जीवन में जो सुख है उसको रखा जाये और दूसरे पलड़े में वाणव्यन्तर देवों के सुख को रखा जाये तो वाणव्यन्तर की अपेक्षा उस श्रमण के सुख का पलड़ा भारी रहेगा। इसी प्रकार दो मास के श्रमण के सुख के सामने भवनवासीदेवों का सुख नगण्य है। इस तरह बारह मास की दीक्षापर्याय वाले श्रमण को जो सुख है, वह सुख अनुत्तरौपपातिक देवों को भी नहीं है। आध्यात्मिक सुख के सामने भौतिक सुख कितना तुच्छ हैं, स्पष्ट किया गया है। अनुत्तर विमानवासी देवों का सुख भी, जो श्रमण आत्मस्थ हैं, उनके सामने नगण्य है। भगवतीसत्र में श्रमण निर्ग्रन्थों के सम्बन्ध में विविध दृष्टियों से चिन्तन किया है। गौतम ने जिज्ञासा प्रकट की कि भगवन् ! निर्ग्रन्थ कितने प्रकार के हैं ? भगवान् ने निर्ग्रन्थों के पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक—ये पांच प्रकार बताये और प्रत्येक के पाँच-पाँच अन्य प्रकार भी बताये हैं। गौतम ने यह भी जिज्ञासा प्रस्तुत की कि संयमी के कितने प्रकार हैं ? भगवान् ने सामायिक संयत, छेदोपस्थापनीय संयत, परिहारविशुद्ध संयत, सूक्ष्मसम्पराय संयत और यथाख्यात संयत, ये पांच प्रकार बताये और उनके भी भेदोपभेदों का कथन किया है। २. भगवती. शतक २५, उद्देशक ६ १. भगवती. शतक १४, उद्देशक ९ ३. भगवती. शतक २५, उद्देशक ७ [३६]
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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