SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 383
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५२] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र समुग्घाया पन्नत्ता, तं जहा–वेयणासमुग्घाए जाव तेयगसमु०, नो चेव णं वेउव्विय-तेयगसमुग्घाएहिं समोहन्निंस वा. समोहन्नंति वा. समोहन्निस्संति वा. ठिती-अणबंधा जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाई उक्कोसेणं एक्कतीसं सागरोवमाडं। सेसं तं चेव। कालाएसेणं जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाई वासपुहत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं तेणउति सागरोवमाइं तिहिं पुवकोडीहिं अब्भहियाइं; एवतियं० । एवं सेसेसु वि अट्ठगमएसु, नवरं ठिति सवेहं च जाणेजा। _[२२ प्र.] भगवन् ! ग्रैवेयक देव, जो मनुष्यों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है? [२२ उ.] गौतम ! वह जघन्य वर्षपृथक्त्व की और उत्कृष्ट पूर्वकोटिवर्ष की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है। शेष वक्तव्यता आनतदेव की वक्तव्यता के समान जाननी चाहिए। विशेष यह है कि हे गौतम ! उसके एकमात्र भवधारणीय शरीर होता है। उसकी अवगाहना—जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट दो रत्नि (हाथ) की होती है। उसका केवल भवधारणीय शरीर समचतुरस्रसंस्थान से युक्त कहा गया है। उसमें पांच समुद्घात पाये जाते हैं। यथा-वेदना-समुद्घात यावत् तैजस-समुद्घात । किन्तु उन्होंने वैक्रिय-समुद्घात और तैजस-समुद्घात कभी किये नहीं, करते भी नहीं और करेंगे भी नहीं। उनकी स्थिति और अनुबन्ध जघन्य बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट इकतीस सागरोपम होता है। शेष पूर्ववत् जानना। कालादेश से—जघन्य वर्षपृथक्त्व-अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि-अधिक तिरानवे (९३) सागरोपम, इतने काल तक गति-आगति करता है। (यह प्रथम गमक हुआ), शेष आठों ही गमकों में भी इसी प्रकार जानना चाहिए। परन्तु स्थिति और संवेध भिन्न समझना चाहिए। २३. जदि अणुत्तरोववातियकप्पातीतवेमाणि० किं विजयअणुत्तरोववातिय० वेजयंतअणुत्तरोववातिय० जाव सवट्ठसिद्ध० ? गोयमा ! विजयअणुत्तरोववातिय० जाव सव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववातिय० । __ [२३ प्र.] भगवन् ! यदि वे (मनुष्य), अनुत्तरौपपातिक कल्पातीत-वैमानिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे विजय, वैजयन्त, जयन्त अथवा यावत् सर्वार्थसिद्ध वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? [२३ उ.] गौतम ! वे (मनुष्य), विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध अनुत्तर विमानवासी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं। २४. विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजितदेवे णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उवव० से णं भंते। केवति० ? एवं जहेव गेवेजगदेवाणं, नवरं ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं, उक्कोसेणं एगा रयणी। सम्मट्ठिी, नो मिच्छादिट्ठी, नो सम्मामिच्छादिट्ठी, णाणी, णो अण्णाणी, नियमं तिनाणी, तं जहा—आभिणिबोहिय० सुय० ओहिणाणी। ठिती जहन्नेणं एक्कत्तीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं। सेसं तं चेव। भवाएसणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं चत्तारि भवग्गहणाई। कालाएसेणं जहन्नेणं एक्कत्तीस सागरोवमाइं वासपुहत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं छावटुिं सागरोवमाई दोहिं पुव्वकोडिहिं अब्भहियाइं; एवतियं० । एवं सेसा वि अट्ठ गमगा भाणियव्वा, नवरं
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy