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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ४६. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो, जहन्नेणं तिपलिओवमट्टिईएसु, उक्कोसेण वि तिपलिओवमट्ठिईएसु। एसा चेव वत्तव्वया, नवरं ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलपुहत्तं, उक्कोसेणं पंच धणुसयाई। ठिती जहन्नेणं मासपुहत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी। एवं अणुबंधो वि। भवादेसेणं दो भवग्गहणाई। कालादेसेणं जहन्नेणं तिण्णि पलिओवमाई मासपुहत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं पुव्वकोडीए अब्भहियाई; एवतियं०। [तइओ गमओ] ___ [४६] यदि वही (संज्ञी मनुष्य), उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में उत्पन्न हो, तो वह जघन्य और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति वाले संज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है। यहाँ भी वही पूर्वोक्त वक्तव्यता कहनी चाहिए। परन्तु विशेष यह है कि उसकी अवगाहना जघन्य अंगुल-पृथक्त्व और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष की होती है। स्थिति जघन्य मास-पृथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की होती है। इसी प्रकार अनुबन्ध भी जान लेना। भवादेश से—जघन्य दो भव तथा कालादेश से-जघन्य मास-पृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम और उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम, इतने काल तक गमनागमन करता है। [तृतीय गमक
४७. सो चेव अप्पणा जहन्नकालद्वितीओ जाओ, जहा सन्निस्स पंचेंदियतिरिक्खजोणियस्स पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु उववजमाणस्स मज्झिमेसु तिसु गमएसु वत्तव्वया भणिया सच्चेव एतस्स वि मज्झिमेसु तिसु गमएसु निरवसेसा भाणियव्वा, नवरं परिमाणं उक्कोसेणं संखेजा उववजंति। सेसं तं चेव। [४–६ गमगा]।
[४७] यदि वह (संज्ञी मनुष्य) स्वयं जघन्यकाल की स्थिति वाला हो और संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न हो, तो जिस प्रकार संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक में उत्पन्न होने वाले पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च की बीच के तीन गमकों (४-५-६) में वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार इसके भी बीच के तीन गमकों की समस्त वक्तव्यता भवादेश तक कहनी चाहिए। परन्तु विशेषता परिमाण के विषय में यह है कि वे उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं शेष पूर्वोक्तवत् कहना चाहिए। (४-५-६ गमक)
४८. सो चेव अप्पणा उक्कोसकालद्वितीओ जाओ, सच्चेव पढमगमगवत्तव्वया, नवरं ओगाहणा जहन्नेणं पंच धणुसयाई, उक्कोसेण विपंच धणुसयाई।ठिती अणुबंधो जहन्नेणं पुवकोडी, उक्कोसेण वि पुव्वकोडी। सेसं तहेव जाव भवाएसो त्ति। कालाएसेणं जहन्नेणं पुवकोडी अंतोमुत्तमब्भहिया, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई पुवकोडिपुहत्तमब्भहियाइं; एवतियं०। [ सत्तमो गमओ]
[४८] यदि वह (संज्ञी मनुष्य) स्वयं उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला हो और संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में उत्पन्न हो, तो उसके लिए प्रथम गमक की वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष—शरीर की अवगाहना जघन्य
और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष की होती है। स्थिति और अनुबन्ध जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटिवर्ष का है। शेष पूर्ववत् भवादेश तक। कालादेश से—जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक पूर्वकोटिवर्ष और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम, यावत् इतने काल गमनागमन करता है। [सप्तम गमक]