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________________ २०८] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक पल्योपम का आठवाँ भाग और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष अधिक एक पल्योपम तथा एक लाख वर्ष, इतने काल तक गमनागमन करता है। इसी प्रकार शेष आठ गमक भी कहने चाहिए। विशेष यह है कि स्थिति और कालादेश (पूर्वापेक्षया भिन्न) समझने चाहिए। __विवेचन—कुछ तथ्यों का स्पष्टीकरण-(१) ज्योतिष्कदेवों में तीन ज्ञान और तीन अज्ञान नियम से कहे गए हैं, इसका कारण यह है कि इनमें असंज्ञी जीव नहीं आते, जो सम्यगदृष्टि संज्ञी जीव आते हैं, उनके उत्पत्ति के समय ही मतिज्ञान आदि तीन ज्ञान होते हैं और जो मिथ्यादृष्टि संज्ञी आते हैं, उनके मति-अज्ञान आदि तीन अज्ञान होते हैं । (२) पल्योपम के आठवें भाग (2) की जो जघन्य स्थिति कही गई है, वह ताराविमानवासी देवी-देवों की अपेक्षा समझनी चाहिए तथा एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की उत्कृष्ट स्थिति कही गई है, वह चन्द्र-विमानवासी देवों की अपेक्षा समझनी चाहिए। (३) पृथ्वीकायिक जीवों में पांचों प्रकार के ज्योतिष्क देव आकर उत्पन्न होते हैं । ज्योतिष्क देवों के ५ भेद इस प्रकार हैं- (१) चन्द्र, (२) सूर्य, (३) ग्रह, (४) नक्षत्र और (५) तारा। २ वैमानिक देवों की अपेक्षा पृथ्वीकायिक-उत्पत्ति-निरूपण ५२. जइ वेमाणियदेवेहिंतो उववजंति किं कप्पोवगवेमाणिय० कप्पातीयवेमाणिय० ? गोयमा ! कप्पोवगवेमाणिय०, नो कप्पतीयवेमाणिय० । _ [५२ प्र.] भगवन् ! यदि वे (पृथ्वीकायिक जीव), वैमानिकदेवों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे कल्पोपपन्न वैमानिकदेवों से आकर उत्पन्न होते हैं अथवा कल्पातीत वैमानिकदेवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? [५२ उ.] गौतम ! वे कल्पोपपन्न वैमानिकदेवों से आकर उत्पन्न होते हैं, कल्पातीत से उत्पन्न नहीं होते ५३. जदि कप्पोवगवेमाणिय० किं सोहम्मकप्योवगवेमाणिय० जाव अच्चुयकप्पोवगवेमा० ? गोयमा ! सोहम्मकप्पोवगवेमाणिय०, ईसाणकप्योवगवेमाणिय०, नो सणंकुमारकप्पोवगवेमाणिय० जाव नो अच्चुयकप्पोवगवेमाणिय०। [५३ प्र.] (भगवन् ! ) यदि वे (पृथ्वीकायिक) कल्पोपन्न वैमानिकदेवों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे सौधर्म-कल्पोपन्न वैमानिकदवों से आकर उत्पन्न होते हैं, अथवा यावत् अच्युतकल्पोपन्न वैमानिकदेवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? . [५३ उ.] गौतम ! वे सौधर्म-कल्पोपपन्न वैमानिकदेवों से तथा ईशान-कल्पोपपन्न वैमानिक-देवों से १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८३१ (ख) जघन्या त्वष्टभांगः । ज्योतिष्काणामधिकम्। २. ज्योतिष्काः सूर्याश्चन्द्रमसौ-ग्रह-नक्षत्रप्रकीर्णतारकाश्च। -तत्त्वार्थसूत्र अ. ४. सू. ४८, ५१ –तत्त्वार्थसूत्र अ. ४, सू. १३
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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