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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले वायुकायिकों में उपपात-परिमाणादि वीस द्वारों की प्ररूपणा
१६. जति वाउकाइएहितो ?
वाउकाइयाण वि एवं चेव नव गमगा जहेव तेउकाइयाणं, नवरं पडागासंठिया पन्नत्ता, संवेहो वाससहस्सेहिं कायव्यो, तइयगमए कालादेसेणं जहन्नेणं बावीस वाससहस्साइं अंतोमहत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं एगं वाससयसहस्सं, एवतियं० । एवं संवेहो उवजुंजिऊण भाणियव्वो। [१-९ गमगा]
[१६ प्र.] (भगवन् ! ) यदि वे वायुकायिकों से आकर उत्पन्न हों तो? इत्यादि प्रश्न ।
[१६ उ.] वायुकायिकों के विषय में तेजस्कायिकों की तरह नौ ही गमक कहने चाहिए। विशेष यह है कि वायुकाय का संस्थान पताका के आकार का होता है। संवेध हजारों वर्षों से कहना चाहिए। तीसरे गमक में काल की अपेक्षा से—जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक लाख वर्ष; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। इस प्रकार उपयोगपूर्वक संवेध कहना चाहिए। [गमक १ से ९ तक] ।
विवेचन—कुछ स्पष्टीकरण (१) वायुकायिक जीवों का संवेध–हजारों से कहना चाहिए, इस कथन का आशय यह है कि तेजस्काय के अधिकार में तीन अहारोत्र से संवेध किया गया था, क्योंकि उनकी उत्कृष्ट स्थिति तीन अहारोत्र की होती है, जबकि वायुकायिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन हजार वर्ष की होती है, इसलिए इनका संवेध तीन हजार वर्षों से कहना चाहिए। (२) तीसरे गमक में उत्कृष्ट आठ भव बताए हैं. उनमें से पथ्वीकायिक के चार भवों की उत्कृष्ट स्थिति ८८,००० वर्ष की होती है और वायुकायिक जीवों के चार भवों का उत्कृष्ट स्थिति १२,००० वर्ष की होती है। इन दोनों को मिलाने से संवेध एक लाख वर्ष का होता है। इस प्रकार जहाँ उत्कृष्ट स्थिति का गमक हो, वहाँ उत्कृष्ट आठ भव और तदनुसार काल कहना चाहिए। इसके अतिरिक्त दूसरे गमकों में असंख्यात भव और तदनुसार असख्यात काल कहना चाहिए।' पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले वनस्पतिकायिकों में उपपात-परिमाणादि वीस द्वारों का प्ररूपणा
१७. जति वणस्सतिकाइएहितो० ?
वणस्सइकाइयाणं आउकाइयगमगसरिसा नव गमगा भाणियव्वा, नवरं नाणासंठिया। सरीरोगाहणा पन्नत्ता—पढमएसु पच्छिल्लएसु यतिसु गमएसु जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं, उक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं, मज्झिल्लएसु तिसु तहेव जहा पुढविकाइयाई। संवेहो ठिती य जाणियव्वा। ततिए गमए कालएसेणं जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साइं अंतोमुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं अट्ठावीसुत्तरं वाससयसहस्सं, एवतियं० । एवं संवेहो उवजुंजिऊण भाणियव्यो।
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८२६