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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सप्तम नरकपृथ्वी में उत्पन्न होनेवाले पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी-पंचेन्द्रियातर्यञ्च के उत्पाद-परिमाणादि वीस द्वारों की प्ररूपणा
८१. पज्जत्तसंखेजवासाउय० जाव तिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए अहेसत्तपुढविनेरइएसु उववजित्तए से णं भंते ! केवतिकालट्ठितीएसु उववज्जेज्जा ?
गोयमा ! जहन्नेणं बावीससागरोवमट्ठितीएसु, उक्कोसेणं तेत्तीससागरोवमद्वितीएसु उववज्जेजा।
[८१ प्र.] भगवन् ! पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक, जो अधःसप्तमनरकपृथ्वी में उत्पन्न होने योग्य हो, वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? ___[८१ उ.] गौतम ! वह जघन्य बाईस सागरोपम की और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है।
८२. ते णं भंते ! जीवा०?
एवं जहेव रयणप्पभाए णव गमका, लद्धी वि स च्चेव;णवरं वइरोसभनारायसंघयणी, इत्थिवेदगा न उववजंति। सेसं तं चेव जाव अणुबंधो त्ति। संवेहो भवाएसेणं जहन्नेणं तिण्णि भवग्गहणाइं, उक्कोसेणं सत्ता भवग्गहणाइं; कालाएसेणं जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाइंदोहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाई, उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाइं चउहि पुव्वकोडीहिं अब्भहियाई; एवतियं जाव करेजा १[सु० ८१८२ पढमो गमओ]। __[८२ प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न।
[८२ उ.] गौतम ! रत्नप्रभापृथ्वी के समान इसके भी नौ गमक और अन्य सब वक्तव्यता समझनी चाहिए। विशेष यह है कि वहाँ वज्रऋषभनाराचसंहनन वाला ही उत्पन्न होता है, स्त्रीवेद वाले जीव वहाँ उत्पन्न नहीं होते। शेष समग्र कथन अनुबन्ध तक पूर्वोक्त प्रकार से जानना चाहिए। संवेध—भव की अपेक्षा से जघन्य तीन भव और उत्कृष्ट सात भव तथा काल की अपेक्षा से जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक ६६ सागरोपम तक गमनागम करता है। [सू० ८१-८२ प्रथम गमक]
८३. सो चेव जहन्नकालट्ठितीएसु उववन्नो, सच्चेव वत्तव्वया जाव भवादेसो त्ति। कालाएसेणं जहन्नेणं० कालादेसो वि तहेव जाव चउहिं पुव्वकोडीहिं अब्भहियाइं; एवतियं जाव करेजा। [सु० ८३ बीओ गमओ]
[८३] वे (संज्ञी-पंचेन्द्रियतिर्यञ्च) जघन्यकाल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं; इत्यादि सब वक्तव्यता भवादेश तक पूर्वोक्त रूप से जानना। कालादेश से भी जघन्यतः उसी प्रकार यावत् चार पूर्वकोटि अधिक (६६ सागरोपम), इतने काल तक गमनागमन करता है, (यहाँ तक कहना चाहिए) [सू. ८३ द्वितीय गमक]
८४. सो चेव उक्कोसकालट्ठितीएसु उववन्नो, स च्चेव लद्धी जाव अणुबंधो त्ति, भवाएसेणं