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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पारिभाषिक शब्दों के अर्थ—उक्खेव–उत्क्षेप प्रारम्भवाक्य (प्रस्तावना) रूप होता है और निक्खेवनिक्षेप समाप्तिवाक्य रूप होता है। निक्षेप का दूसरा नाम निगमन या उपसंहार है। शर्कराप्रभा से तमःप्रभा नरक तक में उत्पन्न होने वाले पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञीपंचेन्द्रियतिर्यञ्च के उपपात-परिमाणादि वीस द्वारों की प्ररूपणा
७७. पजत्तसंखेजवासाउयसण्णिपंचेंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए सक्करप्पभाए पुढवीए णेरइएसु उववजित्तए से णं भंते ! केवतिकालट्ठितीएसु उववजेजा ? .
गोयमा ! जहन्नेणं सागरोवमट्ठितीएसु, उक्कोसेणं तिसागरोवमट्ठितीएसु उववजेजा।
[७७ प्र.] भगवन् ! पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक, जो शर्कराप्रभा पृथ्वी में नैरयिक रूप से उत्पन्न होने योग्य हो, वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है?
[७७ उ.] गौतम ! वह जघन्य एक सागरोपम की स्थिति वाले और उत्कृष्ट तीन सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है।
७८. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं० ?
एवं ज च्चेव रयणप्पभाए उववजंतगस्स लद्धी स च्चेव निरवसेसा भाणियव्वा जाव भवादेसो त्ति। कालादेसेणं जहन्नेणं सागरोवमं अंतोमुत्तमब्भहियं, उक्कोसेणं बारस सागरोवमाइं चउहिं पुव्वकोडीहिं अब्भहियाइं; एवतियं जाव करेजा।
[७८ प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ?
[७८ उ.] गौतम ! रत्नप्रभा नरक में उत्पन्न होने वाले पर्याप्त संज्ञी-पंचेन्द्रियतिर्यञ्च की समग्र वक्तव्यता यहाँ भवादेश पर्यन्त कहनी चाहिए तथा काल की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक बारह सागरोपम, इतने काल यावत् गमनागमन करता है।
७९. एवं रयणप्पभपुढविगमगसरिसा नव विगमगा भाणियव्वा, नवरं सव्वगमएसु वि नेरइयद्वितीसंवेहेसु सागरोवमा भाणियव्वा।
[७९] इस प्रकार रत्नप्रभापृथ्वी के गमक के समान नौ ही गमक जानने चाहिए। परन्तु विशेष यह है कि सभी नरकों में नैरयिकों की स्थिति और संवेध के सम्बन्ध में सागरोपम' कहने चाहिए।
८०. एवं जाव छट्ठपुढवि त्ति, णवरं नेरइयठिती जा जत्थ पुढवीए जहन्नुक्कोसिया सा तेणं चेव कमेणं चउग्गुणा कायव्वा, वालुयप्पभाए अट्ठावीसं सागरोवमा चउग्गुणिया भवति, पंकप्पभाए चत्तालीसं, धूमप्पभाए अट्ठसट्ठि तमाए अट्ठासीति। संघयणाई वालुयप्पभाए पंचविहसंघयणी, तं
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८१२