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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
गोयमा! जहन्नेणं पलिओवमस्स असंखेन्जतिभागद्वितीएसु उववजेज्जा, उक्कोसेण वि पलिओवमस्स असंखेजतिभागट्टितीएसु उववज्जेज्जा।
[२९ प्र.] भगवन् ! पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीव, रत्नप्रभा में उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य हो, तो वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ?
[२९ उ.] गोतम! वह जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले नैरयिकों में और उत्कृष्ट भी पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है।
३०. ते णं भंते! जीवा०? अवसेसं तं चेव जाव अणुबंधो। [३० प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं? इत्यादि प्रश्न।। [३० उ.] गौतम! पूर्ववत् (सू.६ से २४ तक के समान) समग्र वक्तव्यता अनुबन्ध पर्यन्त जानना चाहिए।
३१. सेणं भंते! पज्जत्ताअसन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिए उक्कोसकालद्वितीयरयणप्पभापुढविनेरइए [उक्कोस० ] पुणरवि पज्जत्ता० जाव करेज्जा?
गोयमा! भवाएसेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहन्नेणं पलिओवमस्स असंखेज्जतिभागं अंतोमुत्तमब्भहियं, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजतिभागं पुव्वकोडिअब्भहियं, एवतियं कालं सेवेन्जा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेजा। [सु० २९-३१ तइओ गमओ]। :
[३१ प्र.] भगवन् ! वह जीव, पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक हो, फिर उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न हो और पुनः पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक हो तो वह (कितना काल सेवन करता है और कितने काल तक) गमनागमन करता रहता है?
[३१ उ.] गौतम! भवादेश से (भवापेक्षया) दो भव ग्रहण करता है और काल की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग तथा उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग, इतना काल सेवन करता है और इतने काल तक गमनागमन करता है। [सू. २९ से ३१ तक तृतीय गमक
३२. जहन्नकालद्वितीयपज्जत्ताअसन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते! जे भविए रयणप्पभापुढविनेरइएसु उववज्जित्तए से णं भंते! केवतिकालट्ठितीएसु उववजेज्जा?
गोयमा! जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीएसु, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजतिभागट्ठितीएसु उववज्जेज्जा।
[३२ प्र.] भगवन् ! जघन्य स्थिति वाला पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीव जो रत्नप्रभापृथ्वी
१. [] इस कोष्ठक के अन्तर्गत पाठ अन्य प्रतियों में नहीं है। –सं.