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________________ चौवीसवाँ शतक : प्राथमिक ] . [१२३ (५) संस्थान, (६) लेश्या, (७) दृष्टि, (८) ज्ञान, अज्ञान, (९) योग (१०) उपयोग। (११) संज्ञा, (१२) कषाय, (१३) इन्द्रिय, (१४) समुद्घात, (१५) वेदना, (१६) वेद, (१७) आयुष्य, (१८) अध्यवसाय, (१९) अनुबन्ध और (२०) कायसंवेध। चौवीस दण्डक इस प्रकार हैं-(१) सात नरक पृथ्वियों का एक दण्डक, (२-११) असुरकुमार आदि १० भवनवासी देवों के १० दण्डक, (१२-१६) पांच स्थावरों के पांच दण्डक, (१७-१९) तीन विकलेन्द्रियों के तीन दण्डक, (२०) तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय का एक दण्डक, (२१) मनुष्य का एक दण्डक, (२२) वाणव्यन्तर देव का एक दण्डक, (२३) ज्योतिष्क देव का एक दण्डक और (२४) वैमानिक देव का एक दण्डक। उपपात का अर्थ है—नैरयिकादि कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं? __परिमाण का अर्थ है-नैरयिकादि में उत्पन्न होने वाले जीवों की संख्या। संहनन का अर्थ है-शरीर की अस्थियों आदि की रचना। संस्थान –आकृति, डीलडौल। उच्चत्व-शरीर की ऊँचाई। लेश्याकृष्णादि द्रव्यों के सानिध्य में आत्मा में उत्पन्न हुआ शुभाशुभ परिणाम। अथवा एक प्रकार की दीप्ति। दृष्टि का अर्थ है—दर्शन (सम्यक् या मिथ्या बुद्धि) ज्ञान, अज्ञान, इन्द्रिय वेदना आदि प्रसिद्ध हैं। योग-मन-वचन-काया का व्यापार (प्रवृत्ति)। उपयोग-ज्ञान-दर्शनरूप व्यापार (या ध्यान)। संज्ञा-आहार आदि की अभिलाषा या बुद्धि। कषाय-क्रोध-मान-माया-लोभरूप वृत्ति, क्रोधादि का रस-विशेष । समुद्घात का अर्थ है—जिस समय आत्मा वेदना, कषाय आदि से परिणत होता है, उस समय वह अपने कतिपय प्रदेशों को शरीर से बाहर निकाल करके उन प्रदेशों से वेदनीयकषायादि कर्मप्रदेशों की जो निर्जरा करता है, वह । वेद का अर्थ है—मोहनीयकर्म का एक भेद, जिसके उदय से मैथुन की इच्छा होती है। आयुष्य का अर्थ है—किसी पर्याय में जीवित रहने का कारणभूत कर्म । अध्यवसाय का अर्थ है, आत्मा का शुभाशुभ परिणाम, विचार या मानसिक संकल्प। अनुबन्ध का अर्थ है—विवक्षित पर्याय से अविच्छिन्न रहना। कायसंवेध का अर्थ है-विवक्षित काय से कायान्तर (दूसरी काय) या तुल्यकाय में जाकर पुन: यथासम्भव उसी काया में आना। निष्कर्ष यह है कि ये सब जीव के शरीर, मन, वचन आदि से सम्बद्ध एवं कर्मजन्य विविध परिणतियाँ हैं, जो जन्ममरण के साथ लगी हुई हैं। कुल मिलाकर इसमें आध्यात्मिक तत्त्वज्ञान का सार भरा हुआ है, जिससे प्रेरणा लेकर मुमुक्षु भव्य साधक अपने आत्मकल्याण का पथ आसानी से पकड़ सकता है। १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. २, पृ. ९०४ से ९६८ २. दण्डकप्रकरण
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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