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वीसवाँ शतक : उद्देशक-१०]
[७५ [१९] इसी प्रकार उद्वर्तना-दण्डक भी कहना चाहिए। २०. नेरइया णं भंते ! किं आयप्पयोगेणं उववजंति, परप्पयोगेणं उववजंति ? गोयमा ! आयप्पयोगेणं उववज्जति, नो परप्पयोगेणं उववज्जति। [२० प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव आत्मप्रयोग से उत्पन्न होते हैं, अथवा परप्रयोग से उत्पन्न होते हैं ? [२० उ.] गौतम ! वे आत्मप्रयोग से उत्पन्न होते हैं, परप्रयोग से उत्पन्न नहीं होते हैं। २१. एवं जाव वेमाणिया। [२१] इसी प्रकार वैमानिकों पर्यन्त (कहना चाहिए)। २२. एवं उव्वट्टणादंडओ वि। [२२] इसी प्रकार उद्वर्तना-दण्डक भी (कहना चाहिए)।
विवेचन—प्रस्तुत १६ सूत्रों (७ से २२ तक) में नैरयिकों से वैमानिकों पर्यन्त चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के उत्पत्ति और उद्वर्तना (मृत्यु) के विषय में आत्मोपक्रम-परोपक्रम-निरुपक्रम, आत्मऋद्धि-परऋद्धि, आत्मकर्म-परकर्म, आत्मप्रयोग-परप्रयोग आदि विभिन्न पहलुओं से चर्चा की गई है।
आत्मोपक्रम-परोपक्रम-निरुपक्रम का स्वरूप-आत्मोपक्रम-व्यवहारदृष्टि से आयुष्य को स्वयमेव घटा देना। यथा-श्रेणिक नरेश। परोपक्रम-अन्य के द्वारा आयुष्य का घटाया जाना अर्थात् अन्य के द्वारा आयुष्य को घटाने से मरना, यथा—कोणिक सम्राट् । निरुपक्रम-उपक्रम के अभाव में मरना। यथा-कालसौकरिक।
आतिड्डिए-आत्मऋद्धि अर्थात् अपने सामथ्य से, दूसरे (ईश्वरादि) के सामर्थ्य से नहीं। आयकम्मुणा—आत्मकर्म से अर्थात् स्वकृत आयुष्य आदि कर्मों से।
आयप्पओगेण अपने ही व्यापार से। चौवीस दण्डकों और सिद्धों में कति-अकति-अवक्तव्य-संचित पदों का यथायोग्य निरूपण
२३.[१] नेरइया णं भंते ! किं कतिसंचिता, अकतिसंचिता, अव्वत्तव्वगसंचित्ता ? गोयमा ! नेरइया कतिसंचिया वि, अकतिसंचिता, वि, अवत्तव्वगसंचिता वि। [२३-१ प्र.] भगवन् ! नैरयिक कतिसंचित हैं, अकतिसंचित हैं अथवा अवक्तव्यसंचित हैं ? [२३-१ उ.] गौतम ! नैरयिक कतिसंचित भी हैं, अकतिसंचित भी हैं और अवक्तव्यसंचित भी हैं।
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तुं भा. २. (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. ८८२-८८३ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७९६ ३. वही, पत्र ७९६