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________________ वीसवाँ शतक : उद्देशक-९] [७१ [८ उ.] गौतम ! वह (जंघाचारण मुनि) यहाँ से एक उत्पात से रुचकवरद्वीप में समवसरण करता है, फिर वहाँ ठहर कर वह चैत्य-वन्दना करता है। चैत्यों की स्तुति करके लौटते समय दूसरे उत्पात से नन्दीश्वरद्वीप, में समवसरण करता है तथा वहाँ स्थित होकर चैत्यस्तुति करता है। तत्पश्चात् वहाँ से लौटकर यहाँ आता है। यहाँ आकर वह चैत्य-स्तुति करता है। हे गौतम ! जंघाचारण की तिरछी गति का ऐसा (शीघ्र) गतिविषय कहा गया है। ९. जंघाचारणस्स णं भंते ! उड्ढे केवतिए गतिविसए पन्नत्ते ? गोयमा ! से णं इओ एगेणं उप्पाएणं पंडगवणे समोसरणं करेति, स० क० २ तहिं चेतियाई वंदति, तहिं वं० २ ततो पडिनियत्तमाणे बितिएणं उप्पाएणं नंदणवणे समोसरणं करेति, नं० क० २ तहिं चेतियाइं वंदति, तहिं० व २ इहमागच्छति, इहमा० २ इहं चेतियाइं वंदइ। जंघाचारणस्स णं गोयमा ! उड्ढं एवतिए गतिविसए पन्नत्ते। से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंते कालं करेति, नत्थि तस्स आराहणा; से णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कंते कालं करेति, अत्थि तस्स आराहणा। सेवं भंते ! जाव विहरति। ॥ वीसइमे सए : नवमो उद्देसओ समत्तो ॥ २०-९॥ [९ प्र.] भगवन् ! जंघाचारण की ऊर्ध्व-गति का विषय कितना कहा गया है ? [९ उ.] गौतम ! वह (जंघाचारण मुनि) यहाँ के एक उत्पात में पण्डकवन में समवसरण करता है। फिर वहाँ ठहर कर चैत्यस्तुति करता है। फिर वहाँ से लौटते हुए दूसरे उत्पात से नन्दनवन में समवसरण करता है। फिर वहाँ चैत्यस्तुति करता है। तत्पश्चात् वहाँ से वापस यहाँ आ जाता है। यहाँ आकर चैत्यस्तुति करता है। इसीलिए हे गौतम ! जंघाचारण का ऐसा ऊर्ध्वगति का विषय कहा गया है। यह जंघाचारण उस (लब्धिप्रयोग-सम्बन्धी प्रमाद-) स्थान की आलोचना तथा प्रतिक्रमण किये विना यदि काल कर जावे तो उसकी (चारित्र-) आराधना नहीं होती। (इसके विपरीत) यदि वह जंघाचारण उस प्रमादस्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल करता है तो उसकी आराधना होती है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन–जंघाचारण का शीघ्रतर गति-सामर्थ्य तीन चुटकी बजाने जितने समय में जंघाचारण २१ वार समग्र जम्बूद्वीप के चक्कर लगाकर लौट आता है । यह गति विद्याचारण से सात गुणी अधिक शीघ्र है। जंघाचारण की लब्धि का ज्यों-ज्यों प्रयोग होता है, त्यों-त्यों वह अल्प सामर्थ्य वाली हो जाती है, इसलिए वह जाते समय तो एक ही उत्पात में वहाँ पहुँच जाता है, किन्तु लौटते समय दो उत्पात से पहुँचता है। ॥ वीसवां शतक : नौवाँ उद्देशक समाप्त॥ *** १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७९५-७९६
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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