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और आचारसंहिता में भी परिवर्तन आया है। इस परिवर्तन का मूल आधार अवैदिक परम्परा रही है। दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि वेदों के पश्चात् जो ग्रन्थ निर्मित हुए उन पर श्रमणसंस्कृति की छाप स्पष्ट रूप से निहारी जा सकती है।
वेदों में सृष्टितत्त्व के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है तो श्रमणसंस्कृति में संसारतत्त्व पर गहराई से विचार किया गया है। वैदिक दृष्टि से सृष्टि के मूल में एक ही तत्त्व है तो श्रमणसंस्कृति ने संसारतत्त्व के मूल में जड़ और चेतन ये दो तत्त्व माने हैं । वैदिक परम्परा में सृष्टि कब उत्पन्न हुई? इस सम्बन्ध में विचार व्यक्त किया गया है तो श्रमणसंस्कृति की दृष्टि से संसारचक्र अनादि काल से चल रहा है। उसका न तो आदि है और न अन्त ही है । वेदों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन महाव्रतों की चर्चा नहीं हुई है। यहाँ तक कि हिंसा और परिग्रह पर बल दिया गया है। वाजसनेयीसंहिता में पुरुषमेधयज्ञ में १८४ पुरुषों के वध का संकेत किया गया है। ऋग्वेद, विष्णुस्मृति, मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में भी यज्ञ-याग के लिए की गई हिंसा को हिंसा नहीं समझा गया है। वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' जैसे गर्हित सूत्र बनाए गए थे। श्रमण-संस्कृति के दिव्य प्रभाव से ही वेदों के पश्चात् निर्मित साहित्य में व्रतों की चर्चाएं हुई हैं।
डा. हरमन जैकोबी का अभिमत है कि जैनों ने अपने व्रत ब्राह्मणों से उधार लिए हैं। ब्राह्मण संन्यासी अहिंसा, सत्य, अचौर्य, सन्तोष और मुक्तता उन महाव्रतों का पालन करते थे जो आगे चलकर जैन महाव्रतों का आधार बने, पर जैकोबी की इस कल्पना का कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है। बौधायन में उल्लिखित व्रतों के आधार पर डॉ. जैकोबी ने जो कल्पना की है, वह सत्य तथ्य से परे है, क्योंकि व्रत का सम्बन्ध संन्यास आश्रम से है । वेदों में संन्यास आश्रम की कोई चर्चा नहीं है। वैदिक युग में ब्रह्मचर्य और गृहस्थ ये दो ही व्यवस्थाएं थीं। संन्यास की चर्चा उपनिषत्काल में प्रारम्भ हुई। वृहदारण्यक में संन्यास का उल्लेख अवश्य हुआ है। जाबालोपनिषद् में चार आश्रमों की व्यवस्था प्राप्त है। उपनिषद्साहित्य के पूर्व वैदिक परम्परा में पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणा की प्रधानता थी। तैत्तिरीयसंहिता में वर्णन है कि ब्राह्मण तीन ऋणों के साथ जन्म ग्रहण करता है। ऋषियों के ऋण से मुक्त होने के लिए ब्रह्मचर्य है। देवों के ऋण से मुक्त होने के लिए यज्ञ है और पितरों के ऋण से उऋण होने के लिए पुत्रवान् होना आवश्यक है। एक बार वेधस राजा ने नारद ऋषि से पूछा-पुत्र से क्या लाभ ? नारद ने उत्तर प्रदान करते हुए कहा—यदि पिता अपने पुत्र का मुख देख ले तो पितृ-ऋण से मुक्त हो
वाजसनेयीसंहिता, ३० ऋग्वेद, १०।९०: २।२४।३०; ९।३ सेक्रेड वुक्स आफ द ईस्ट, जिल्द ७,५१,६१-६३ मनुस्मृति ५/२२ ॥२९॥४४ . "It is therefore probable that the Jainas have borrowed their own vows from the Brahmans, not from the Buddhists"
-The Sacred Books of the East, Vol. XXII, Introduction p. 24. वृहदारण्यकोपनिषद्, ४/४/२२ (क) जाबालोपनिषद् (ख) वशिष्ठ धर्मशास्त्र ७११२ तैत्तिरीयसंहिता ६३/१०/५
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