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________________ १४] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [५ उ.] गौतम ! (उसके) अनेक अभिवचन कहे गए हैं, यथा—अधर्म, अधर्मास्तिकाय, अथवा प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य, अथवा ईर्यासम्बन्धी असमिति, यावत् उच्चार-प्रस्रवण-खेल-जल्लसिंघाण-परिष्ठापनिकासम्बन्धी असमिति; अथवा मन-अगुप्ति, वचन-अगुप्ति और काय-अगुप्ति; ये सब और इसी प्रकार के जो अन्य शब्द हैं, वे सब अधर्मास्तिकाय के अभिवचन हैं। विवेचन धर्मास्तिकाय के विपरीत शब्द : अधर्मास्तिकाय के पर्यायवाची—पूर्वोक्त लक्षण वाले धर्म से विपरीत अधर्म शब्द है, जो जीव और पुद्गलों की स्थिति में सहायक है। शेष सब पूर्ववत् समझना चाहिए। आकाशास्तिकाय के पर्यायवाची शब्द ६. आगासत्थिकायस्स णं० पुच्छा। गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पन्नता, तं जहा—आगासे ति वा, आगासस्थिकाये ति वा, गगणे ति वा, नभे ति वा, समे ति वा, विसमे ति वा, खहे ति वा, विहे ति वा, वीयी ति वा, विवरे ति वा, अंबरे ति वा, अंबरसे ति वा, छिड्डे ति वा, झसिरे ति वा, मग्गे ति वा, विमुहे तिवा, अद्दे ति वा, वियद्दे ति वा, आधारे ति वा, वोमे ति वा, भायणे ति वा, अंतरिक्खे ति वा, सामे ति वा, ओवासंतरे ति वा, अगमे ति वा, फलिहे ति वा, अणंते ति वा, जे यावऽन्ने तहप्पगारा सव्वे ते आगासत्थिकायस्स अभिवयणा। [६ प्र.] भगवन् ! आकाशास्तिकाय के कितने अभिवचन कहे गए हैं ? [६ उ.] गौतम! (आकाशास्तिकाय के) अनेक अभिवचन कहे गए हैं, यथा-आकाश, आकाशास्तिकाय, अथवा गगन, नभ, अथवा सम, विषम, खह (ख), विहायस्, वीचि, विवर, अम्बर, अम्बरस, छिद्र, शुषिर, मार्ग, विमुख, अर्द, व्यर्द, आधार, व्योम, भाजन, अन्तरिक्ष, श्याम, अवकाशान्तर, अगम, स्फटिक और अनन्त; ये सब तथा इनके समान और भी अनेक अभिवचन आकाशास्तिकाय के हैं। विवेचन—'आकाश' शब्द का निर्वचन–आ–मर्यादापूर्वक अथवा अभिविधिपूर्वक सभी अर्थ जहाँ काश को यानी अपने-अपने स्वभाव को प्राप्त हों, वह 'आकाश' है। गगनादि कठिन शब्दों का निर्वचन -गगन—जिसमें गमन का अतिशय विषय (प्रदेश) है। नभ—जिसमें भा अर्थात् दीप्ति न हो। सम—जिसमें निम्न—नीची और उन्नत—ऊँची ऊबड़खाबड़ जगह का अभाव हो, वह सम है। विषम-जहाँ पहुँचना दुर्गम हो, वह विषम है। खह-खनन करने और हानत्याग करने (छोड़ने) पर भी जो रहता है, वह खह। विहायस्—विशेषतया जिसका हान—त्याग किया जाता हो। विवर—वरण—आवरण से रहित (विगत)। वीचि—जिसका विविक्त, पृथक् या एकान्त स्वभाव हो। अम्बर–अम्बा (माता) की तरह जननसामर्थ्यशील, अम्बा—जल। उसका दान(राण) देने वाला। अम्बरस—अम्बा–जलरूप रस जिसमें से गिरता हो। छिद्र—छिद—छेदन होने पर भी जिसका १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७७६
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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