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________________ करना और उपसंहार में उस प्रश्न को पुनः दोहराना। कितने ही समालोचकों का यह भी कहना है कि अन्य आगमों की तरह भगवती का विवेचन विषयबद्ध, क्रमबद्ध और व्यवस्थित नहीं है। प्रश्नों का संकलन भी क्रमबद्ध नहीं हुआ है। उसके लिए मेरा नम्र निवेदन है कि यह इस आगम की अपनी महत्ता है, प्रामाणिकता है। गणधर गौतम के या अन्य जिस किसी के भी अन्तर्मानस में जिज्ञासाएं उबुद्ध हुईं, उन्होंने भगवान् महावीर के सामने प्रस्तुत की और भगवान् ने उनका समाधान किया। संकलनकर्ता गणधर सुधर्मा स्वामी ने उस क्रम में अपनी ओर से कोई परिवर्तन नहीं किया और उन प्रश्नों को उसी रूप में रहने दिया। यह दोष नहीं किन्तु आगम की प्रामाणिकता को ही पुष्ट करता है। कुछ समालोचक यह भी आक्षेप करते हैं कि प्रस्तुत आगम में राजप्रश्नीय, औपपातिक, प्रज्ञापना, जीवाभिगम, प्रश्नव्याकरण और नन्दीसूत्र में वर्णित विषयों के अवलोकन का सूचन किया गया है। इसलिए भगवती की रचना इन आगमों की रचना के बाद में होनी चाहिये। इस सम्बन्ध में भी यह निवेदन है कि यह जो सूचन है वह आगम-लेखन के काल का है। आचार्य देवर्द्धिगणि क्षमाक्षमण ने जब आगमों का लेखन किया तब क्रमशः आगम नहीं लिखे। पूर्व लिखित आगमों में जो विषयवर्णन आ चुका था, उसकी पुनरावृत्ति से बचने के लिए पूर्व लिखित आगमों का निर्देश किया है। यह सत्य है कि भगवतीसूत्र के अर्थ के प्ररूपक स्वयं भगवान् महावीर हैं और सूत्र के रचयिता गणधर सुधर्मा हैं। प्रस्तुत आगम की भाषा प्राकृत है। इसमें शौरसेनी के प्रयोग भी कहीं-कहीं पर प्राप्त होते हैं। किन्तु देशी शब्दों के प्रयोग यत्र-तत्र मिलते हैं। भाषा सरल व सरस है। अनेक प्रकरण कथाशैली में लिखे गये हैं। जीवनप्रसंगों, घटनाओं और रूपकों के माध्यम से कठिन विषयों को सरल करके प्रस्तुत किया गया है। मुख्य रूप से यह आगम गद्यशैली में लिखा हुआ है। प्रतिपाद्य विषय का संकलन करने की दृष्टि से संग्रहणीय गाथाओं के रूप में पद्य भाग भी प्राप्त होता है। कहीं-कहीं पर स्वतन्त्र रूप से प्रश्नोत्तर हैं, तो कहीं पर घटनाओं के पश्चात् प्रश्नोत्तर आये हैं। जैन आगमों की भाषा को कुछ मनीषी आर्ष प्राकृत कहते हैं । यह सत्य है कि जैन आगमों में भाषा को उतना महत्त्व नहीं दिया है जितना भावों को दिया है। जैन मनीषियों का यह मानना रहा है कि भाषा आत्म-शुद्धि या आत्म-विकास का कारण नहीं है। वह केवल विचारों का वाहन है। मंगलाचरण प्रस्तुत आगम में प्रथम मंगलाचरण नमस्कार महामन्त्र से और उसके पश्चात् 'नमो बंभीए लिवीए''नमो सुयस्स' के रूप में किया है। उसके पश्चात् १५ वें, १७ वें, २३ वें और २६ वें शतक के प्रारम्भ में भी नमो सुयदेवयाए भगवईए' इस पद के द्वारा मंगलाचरण किया गया है। इस प्रकार ६ स्थानों पर मंगलाचरण है, जबकि अन्य आगमों में एक स्थान पर भी मंगलाचरण नहीं मिलता है। प्रस्तुत आगम के उपसंहार में "इक्कचत्तालीसइमं रासीजुम्मसयं समत्तं" यह समाप्तिसूचक पद उपलब्ध है। इस पद में यह बताया गया है कि इसमें १०१ शतक थे। पर वर्तमान में केवल ४१ शतक ही उपलब्ध होते हैं। समाप्तिसूचक इस पद के पश्चात् यह उल्लेख मिलता है कि-"सव्वाए भगवईए अद्रुतीसं सयं सयाणं (१३८) उद्देसगाणं १९२५" इन शतकों की संख्या अर्थात् अवान्तर शतकों को मिलाकर कुल शतक १३८ हैं [१०४]
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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