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क्या है ? व्युत्सर्ग क्या है ? क्या आप इनको जानते हैं ? इनके अर्थ को जानते हैं ? स्थविरों ने एक ही शब्द में उत्तर दिया- आत्मा ही सामायिक, प्रत्याख्यान, संयम आदि है और आत्मा ही उसका अर्थ है । इससे स्पष्ट है कि जैन दर्शन की जो साधना है वह सब साधना आत्मा के लिए ही है ।
पुन: कालास्यवेशी ने जिज्ञासा प्रस्तुत की— आत्मा सामायिक आदि है तो फिर आप क्रोध, मान, माया, लोभ आदि की निन्दा, गर्हा क्यों करते हैं ? क्योंकि निन्दा तो असंयम है। स्थविरों ने कहा—— आत्मनिन्दा असंयम नहीं है। आत्मनिन्दा करने से दोषों से बचा जा सकता है और आत्मा संयम में संस्थापित होता है । परनिन्दा असंयम है। वह पीठ के मांस खाने के समान निन्दनीय हैं। पर स्व-निन्दा वही व्यक्ति कर सकता है जिसे अपने दोषों का परिज्ञान है। इसीलिए आगमसाहित्य में साधक के लिए 'निन्दामि, गरिहामि' आदि शब्द प्रयुक्त हुए हैं।
भगवतीसूत्र शतक १, उद्देशक १० में गणधर गौतम ने भगवान् महावीर से जिज्ञासा प्रस्तुत की कि अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं कि एक जीव एक समय में दो क्रियाएँ करता है—ईयापथिकी और साम्परायिकी । ये दोनों क्रियाएँ साथ-साथ होती हैं ?
भगवान् ने समाधान दिया——— प्रस्तुत कथन मिथ्या है, क्योंकि जीव एक समय में एक ही क्रिया कर सकता | यापथिकी क्रिया कषायमुक्त स्थिति में होती है तो साम्परायिकी क्रिया कषाययुक्त स्थिति में होती है। ये दोनों परस्पर विरुद्ध हैं ।
भगवती में विविध प्रकार की वनस्पतियों का भी उल्लेख है । वनस्पतिविज्ञान पर प्रज्ञापना में भी विस्तार से वर्णन है । वनस्पति अन्य जीवों की तरह श्वास ग्रहण करती है, नि:श्वास छोड़ती है। आहार आदि ग्रहण करती हैं। इनके शरीर में भी चय- उपचय, हानि - वृद्धि, सुख - दुःखात्मक अनुभूति होती है। सुप्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक श्री जगदीशचन्द्रजी बोस ने अपने परीक्षणों द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि वनस्पति में क्रोध पैदा होता है, और वह प्रेम भी प्रदर्शित करती हैं। प्रेम-पूर्ण सद्व्यवहार से वनस्पति पुलकित हो जाती है और घृणापूर्ण व्यवहार से मुझ जाती है। बोस के प्रस्तुत परीक्षण ने समस्त वैज्ञानिक जगत् को एक अभिनव प्रेरणा प्रदान की है। जिस प्रकार वनस्पति के संबंध में वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि उसमें जीवन है, इसी प्रकार सुप्रसिद्ध भूगर्भवैज्ञानिक फ्रान्सिस ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक " Ten years under earth " में लिखा- मैंने अपनी विभिन्न यात्राओं के दौरान पृथ्वी के ऐसे-ऐसे विचित्र स्वरूप देखे हैं, जो आधुनिक पदार्थविज्ञान के विपरीत हैं । उस स्वरूप को वर्तमान वैज्ञानिक अपने आधुनिक नियमों से समझा नहीं सकते। मुझे ऐसा लगता है, प्राचीन मनीषियों ने पृथ्वी में जो जीवत्व शक्ति की कल्पना की है, वह अधिक यथार्थ है, सत्य है । भगवतीसूत्र में तेजोलेश्या की अपरिमेय शक्ति प्रतिपादित की है। वह अंग, बंग, कलिंग आदि सोलह जनपदों को नष्ट कर सकती है। वह शक्ति अतीत काल में साधना द्वारा उपलब्ध होती थी तो आज विज्ञान ने एटम बम आदि अणुशक्ति को विज्ञान के द्वारा सिद्ध कर दिया है कि पुद्गल की शक्ति कितनी महान् होती है।
इस प्रकार भगवतीसूत्र में सहस्रों विषयों पर गहराई से चिन्तन हुआ है। यह अपने आप में महत्त्वपूर्ण हैं । इस आगम में स्वयं श्रमण भगवान् महावीर के जीवन के और उनके शिष्यों के एवं गृहस्थ उपासकों के व अन्यतीर्थिक संन्यासियों के और उनकी मान्यताओं के विस्तृत प्रसंग आये हैं । आजीवक सम्प्रदाय के अधिनायक
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