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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [३४ उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिक जीवों के समान अकाय के जीवों के विषय में समझना चाहिए। ३५. एवं तेउयाए वि। [३५] इसी प्रकार अग्निकाय के विषय में भी जानना। ३६. एवं वाउकाए वि। [३६] वायुकायिक जीवों के विषय में भी पूर्ववत् जानना। ३७. एवं वणस्सतिकाए वि जाव विहरइ। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति।
॥एगूणवीसइमे सए : तइओ उद्देसओ समत्तो॥१९-३॥ [३७] इसी प्रकार वनस्पतिकाय भी पूर्ववत् यावत् पीड़ा का अनुभव करता है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं।
विवेचन—पांच स्थावर जीवों की पीड़ा का सदृष्टान्त निरूपण—प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. ३३ से ३७ तक) में पृथ्वीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक जीवों की पीड़ा की बलिष्ठ युवक द्वारा सिर पर मुष्टि प्रहार से आहत जराजीर्ण अशक्त वृद्ध की पीड़ा से तुलना करके समझाया गया है। वह इसलिए कि पृथ्वीकायिकादिं एकेन्द्रिय जीवों को किस प्रकार की पीड़ा होती है, यह छद्मस्थ पुरुषों के इन्द्रियगोचर नहीं हो सकता और न उनके ज्ञान का विषय हो सकता है। इसलिए भगवान् ने जराजीर्ण वृद्ध पुरुष का दृष्टान्त देकर बतलाया है। वस्तुतः पृथ्वीकायादि के जीव तो उक्त वृद्ध पुरुष की अपेक्षा भी अतीव अनिष्टतर अमनोज्ञ महावेदना का अनुभव करते हैं।
कठिन शब्दार्थ अक्कंते—आक्रान्त, आक्रमण होने पर। जमलपाणिणा—मुष्टि से, दोनों हाथों से। मुद्धाणंसि—मस्तक पर। एत्तोवि—इससे भी।
॥ उन्नीसवाँ शतक-तृतीय उद्देशक समाप्त॥
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१. (क) भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. ६, पृ. २७९३
(ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७६७ २. (क ) वही, पत्र ७६७
(ख) भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. ६, पृ. २७९२