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उन्नीसवाँ शतक : उद्देशक-३
[१४ प्र.] भगवन् ! उन पृथ्वीकायिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [१४ उ.] गौतम! उनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की, उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की है। १५. तेसि णं भंते ! जीवाणं कति समुग्घाया पन्नत्ता ? गोयमा ! तओ समुग्घाया पनत्ता, तं जहा—वेदणासमुग्घाए कसायसमुग्घाए मारणंतियसमुग्घाए। [१५ प्र.] भगवन् ! उन जीवों के कितने समुद्घात कहे गए हैं ?
[१५ उ.] गौतम! उनके तीन समुद्घात कहे गए हैं, यथा-वेदनासमुद्घात, कषाय समुद्घात और मारणान्तिकसमुद्घात।
१६. ते णं भंते ! जीवा मारणंतियसमुग्घाएणं किं समोहया मरंति, असमोहया मरंति ? गोयमा ! समोहया वि मरंति, असमोहया वि मरंति।
[१६ प्र.] भगवन् ! क्या वे जीव मारणान्तिकसमुद्घात करके मरते हैं या मारणान्तिकसमुद्घात किये बिना ही मरते हैं?
[१६ उ.] गौतम! वे मारणान्तिकसमुद्घात करके भी मरते हैं और समुद्घात किये बिना भी मरते हैं। १७. ते णं भंते ! जीवा अणंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छंति ? कहिं उववजंति ? एवं उव्वट्टणा जहा वक्कंतीए। [१७ प्र.] भगवन् ! वे (पृथ्वीकायिक) जीव मरकर अन्तररहित कहाँ जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं ?
[१७ उ.] (गौतम! ) यहाँ (प्रज्ञापनासूत्र के छठे) व्युत्क्रान्तिपद के अनुसार उनकी उद्वर्तना कहनी चाहिए।
विवेचन—बारह द्वारों के माध्यम से पृथ्वीकायिकों के विषय में प्ररूपणा–प्रस्तुत १७ सूत्रों (१ से १७ तक) में पृथ्वीकायिक जीवों के विषय में बारह पहलुओं से प्ररूपणा की गई। वृत्तिकार ने प्रारम्भ में एक गाथा भी बारह द्वारों के नामनिर्देश की सूचित की है
सिय-लेस-दिट्ठि-नाणे-जोगुवओगे तहा किमाहारो।
पाणाइवाय-उप्पाय-ठिई-समुग्घाय-उव्वट्टी॥ अर्थात् (१) स्याद्वार, (२) लेश्याद्वार, (३) दृष्टिद्वार, (४) ज्ञानद्वार, (५) योगद्वार, (६) उपयोगद्वार, (७) किमाहारद्वार, (८) प्राणातिपातद्वार (९) उत्पादद्वार, (१०) स्थितिद्वार, (११) समुद्घातद्वार और (१२) उद्वर्तनाद्वार।
स्याद्वार का स्पष्टीकरण-यहाँ स्याद्वार की अपेक्षा से प्रथम प्रश्न किया गया है कि क्या कदाचित् अनेक पृथ्वीकायिक मिल कर साधारण (एक) शरीर बाँधते हैं ? बाद में आहार करते हैं? तथा उसका परिणमन करते हैं। और फिर शरीर का बन्ध करते हैं? सैद्धान्तिक दृष्टि से देखा जाए तो सभी संसारी जीव प्रतिसमय