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अठारहवाँ शतक : उद्देशक-४
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कई तो जीवों के परिभोग में आते हैं और कई जीवों के परिभोग में नहीं आते हैं ?
[२-२ उ.] गौतम! प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य, पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक और सभी स्थूलाकार कलेवरधारी (द्वीन्द्रियादि जीव), ये सब मिलकर जीवद्रव्यरूप और अजीवद्रव्यरूप—दो प्रकार के हैं, ये सब, जीवों के परिभोग में आते हैं तथा प्राणातिपातविरमण, यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविवेक, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, यावत् परमाणु-पुद्गल एवं शैलेशीअवस्था प्राप्त अनगार, ये सब मिलकर जीवद्रव्यरूप और अजीवद्रव्यरूप—दो प्रकार के हैं। ये सब जीवों के परिभोग में नहीं आते। इसी कारण ऐसा कहा जाता है कि कई द्रव्य जीवों के परिभोग में आते हैं और कई द्रव्य परिभोग में नहीं आते हैं।
विवेचन—प्राणातिपातादि ४८ द्रव्यों में से जीवों के लिए कितने परिभोग्य, कितने अपरिभोग्य ?- प्राणातिपात आदि १८ पापस्थान, अठारह पापस्थानों का त्याग, पांच स्थावर, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, अशरीरी जीव, परमाणु पुद्गल, शैलेशी अवस्थापन अनगार, स्थूलाकार वाले त्रसकाय कलेवर, ये ४८ द्रव्य सामान्यतया दो प्रकार के हैं। इनमें से कितने ही जीव रूप हैं और कितने ही अजीव रूप हैं, किन्तु प्रत्येक दो प्रकार के नहीं हैं। इनमें से पृथ्वीकायादि जीव द्रव्य हैं और धर्मास्तिकायादि अजीव द्रव्य हैं। प्राणातिपातादि-अशुद्धस्वभावरूप और प्राणातिपातादि-विरमण शुद्धस्वभाव रूप जीव के धर्म हैं। इसलिए ये जीव रूप कहे जा सकते हैं । जब जीव प्राणातिपातादि का प्रवृत्ति रूप से सेवन करता है, तब चारित्रमोहनीय कर्म उदय में आता है। उसके द्वारा चारित्रमोहनीयकर्मदलिक भोग के कारण होने से प्राणातिपात आदि जीव के परिभोग में आते हैं । पृथ्वीकायादि का परिभोग तो गमन-शौचादि द्वारा स्पष्ट ही है। प्राणातिपात-विरमणादि जीव के शुद्ध स्वरूप होने से चारित्रमोहनीयकर्म के उदय के हेतुभूत नहीं होते। वधादि के विरति-रूप होने से ये प्राणातिपातविरमणादि जीव रूप हैं। इसलिए वे जीव के परिभोग में नहीं आते। धर्मास्तिकायादि चार द्रव्य अमूर्त हैं, परमाणु सूक्ष्म हैं और शैलेशीप्राप्त अनगार उपदेशादि द्वारा प्रेरणा नहीं करते, इसलिए ये १८ + ४ + १ + १ = २४ द्रव्य अनुपयोगी होने से जीव के परिभोग में नहीं आते। शेष २४ (अठारह पाप, पांच स्थावर और बादर कलेवर) जीव के परिभोग में आते हैं।'
___ कठिन शब्दार्थ-जीवे असरीरप्रतिबद्धे शरीररहित केवल शुद्ध जीव (आत्मा)। बादरबोंदिधरा कलेवरा—स्थूलशरीरधारी जीवों (द्वीन्द्रियादि त्रस जीवों) के कलेवर। कषाय : प्रकार तथा तत्सम्बद्ध कार्यों का कषायपद के अतिदेशपूर्वक निरूपण
३. कति णं भंते ! कसाया पन्नता ?
गोयमा! चत्तारि कसाया पन्नत्ता, तं जहा—कसायपयं निरवसेसं भाणियव्वं जाव निजरिस्संति लोभेण।
१. भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्र ७४५ २. (क) वही, पत्र ७४५
(ख) भगवती. विवेचन, भा. ६ (पं. घेवरचन्दजी) पृ. २६९३