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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र रायरिसी० सेसं तं चेव, नवरं पच्चत्थिमं दिसं पोक्खेति। पच्चत्थिमाए दिसाए वरुणे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खतु सिवं० सेसं तं चेव जाव ततो पच्छा अप्पणा आहारमाहारेइ। . [१४] तदनन्तर उन शिव राजर्षि ने तृतीय बेला (छट्ठक्खमणतप) अंगीकार किया। उसके पारणे के दिन शिवराजर्षि ने पूर्वोक्त सारी विधि की। इसमें इतनी विशेषता है कि पश्चिमदिशा की पूजा की और प्रार्थना कीहे पश्चिम दिशा के लोकपाल वरुण महाराज ! परलोक-साधना-मार्ग में प्रवृत्त मुझ शिवराजर्षि की रक्षा करें, इत्यादि यावत् तब स्वयं आहार किया।
१५. तए णं से सिवे रायरिसी चउत्थं छ?क्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। तए णं से सिवे रायरिसी चउत्थं छट्ठखमणं० एवं तं चेव, नवरं उत्तरं दिसं पोक्खेइ। उत्तरा दिसाए वेसमेण महारायां पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सिवं०, सेसं तं चेव जाव ततो पच्छा अप्पणा आहारमाहारेति।
[१५] तत्पश्चात् उन शिवराजर्षि ने चतुर्थ बेला (छट्ठक्खमण तप) अंगीकार किया। फिर इस चौथे बेले के तप के पारणे के दिन पूर्ववत् सारी विधि की। विशेष यह है कि उन्होंने (इस बार) उत्तरदिशा की पूजा की और इस प्रकार प्रार्थना की—हे उत्तरदिशा के लोकपाल वैश्रमण महाराज ! परलोक-साधना-मार्ग में प्रवृत्त इस शिवराजर्षि की रक्षा करें, इत्यादि अवशिष्ट सभी वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए यावत् तत्पश्चात् शिवराजर्षि ने स्वयं आहार किया।
विवेचन—शिवराजर्षि द्वारा चार छट्ठक्खमण तप द्वारा दिशाप्रोक्षण-प्रस्तुत चार सूत्रों (१२ से १५ तक) में शिवराजर्षि द्वारा क्रमशः एक-एक बेले के पारणे के दिन एक-एक दिशा के प्रोक्षण की की गई तापसचर्या का वर्णन है।
कठिन शब्दों का भावार्थ-वागलवत्थनियत्थे—वल्कलवस्त्र पहने। उडए-उटज—कुटी। किढिणसंकाइयगं—बांस का बना हुआ तापसों का पात्र-विशेष, (छबड़ी) और सांकायिक (कावड़भार ढोने का यंत्र)। पोक्खेइ—प्रोक्षण (पूजन) किया। पत्थाणे-परलोक-साधना-मार्ग में। पत्थियं—प्रस्थितप्रवृत्त । दब्भे—मूलसहित दर्भ-डाभ को। समिहाओ—समिधा की लकड़ी। पत्तामोडं-वृक्ष की शाखा से मोड़े हुए पत्ते । वेदिवड्ढेति—वेदी (देवार्चनस्थान) को वर्धनि-बुहारी से साफ (परिमार्जित) किया। उवलेवणसम्मजणं-गोबर आदि से लेपन तथा जल से सम्मार्जन (शोधनशुद्धि) किया। दब्भ-कलसाहत्थगए— कलश में दर्भ डाल कर हाथ में लिए हुए।ओगाहइ-अवगाहन (प्रवेश) किया। आयंते-आचमन किया। चोक्खे-अशुचिद्रव्य हटाकर शुद्ध हुए। परमसुइभूए—अत्यन्त शुद्ध हुए। देवत-पिति-कयकज्जे–देवता
और पितरों को जलांजलिदानादि का कार्य किया। सरएणं अरणिं महेति—शरक—मथनकाष्ठ से अरणि की लकड़ी को मथा-घिसा। समादहे—सनिधापन किये—रखे।सकहं—सकथा (उपकरण-विशेष) । ठाणंज्योति-स्थान ( या पात्र-स्थान)- दीप। सेज्जाभंडं शय्या के उपकरण । दंडदारु-लकडी का डंडा, दण्ड। चरूं साहेइ-चरू (बलिद्रव्य के पात्र) में बलिद्रव्य को सिझाया। बलिं वइस्सदेवं करेइ-बलि से अग्निदेव की पूजा की। १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५२०