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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र __ [२४] इसी प्रकार विकलेन्द्रिय (एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय) को छोड़ कर वैमानिक तक जानना चाहिए।
२५. एवं पुहत्तेण वि। [२५] इनकी बहुवचन-सम्बन्धी वक्तव्यता भी इसी प्रकार जान लेनी चाहिए। २६. असण्णी एवं चेव एगत्त-पुहत्तेणं, नवरं जाव वाणमंतरा।
[२६] असंज्ञीजीवों की एकवचन-बहुवचन-सम्बन्धी (वक्तव्यता भी इसी प्रकार समझनी चाहिए)। विशेष इतना है कि यह कथन वाणव्यन्तरों तक ही (जानना चाहिए)।
२७. नोसण्णी नोअसण्णी जीवे मणुस्से सिद्धे पढमे, नो अपढमे।
[२७] नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीव, मनुष्य और सिद्ध, नोसंज्ञी-नोअसंज्ञीभाव की अपेक्षा प्रथम है, अप्रथम नहीं है।
२८. एवं पुहत्तेण वि। [२८] इसी प्रकार बहुवचन-सम्बन्धी (वक्तव्यता भी कहनी चाहिए)।
विवेचन—(४) संज्ञीद्वार—प्रस्तुत द्वार में सू. २३ से २८ तक में संजी, विकलेन्द्रिय को छोड़ कर वैमानिक के जीव, असंज्ञी तथा नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीव, मनुष्य और सिद्ध के विषय में एकवचन-बहुवचनसम्बन्धी वक्तव्यता क्रमशः संज्ञी-असंज्ञी भाव एवं नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी भाव की अपेक्षा से कही गई है।
फलितार्थ—संज्ञीजीव संज्ञी भाव की अपेक्षा से अप्रथम है, क्योंकि संजीपन अनन्त वार प्राप्त हो चुका है तथा एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रय तक को छोड़ कर दण्डक क्रम से नैरयिक से लेकर वैमानिक तक के जीव भी संज्ञीभाव की अपेक्षा से अप्रथम हैं। असंज्ञीजीव, एक हो या अनेक, असंज्ञीभाव की अपेक्षा से अप्रथम हैं, क्योंकि नैरयिक से लेकर वाणव्यन्तर तक संज्ञी होने पर भी भूतपूर्वगति की अपेक्षा से तथा नारक आदि में उत्पन्न होने पर कुछ देर तक वहाँ (नरकादि में) असंज्ञित्व रहता है। असंज्ञीजीवों का उत्पाद वाणव्यन्तर तक होता है। पृथ्वीकाय आदि असंज्ञी जीव तो असंज्ञीभाव की अपेक्षा से अप्रथम हैं ही। नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीव सिद्ध ही होते हैं, परन्तु यहाँ समुच्चय जीव और मनुष्य जो सिद्ध होने वाले हैं, इसलिए उनको भी नोसंज्ञी-नोअसंज्ञित्व की अपेक्षा से प्रथम कहा गया है। क्योंकि यह भाव उन्हें पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ था।' सलेश्यी, कृष्णादिलेश्यी एवं अलेश्यी जीव के विषय में सलेश्यादि भाव की अपेक्षा से प्रथमत्व, अप्रथमत्व निरूपण
२९. सलेसे णं भंते ! • पुच्छा। गोयमा! जहा आहारए। [२९ प्र.] भगवन् ! सलेश्यी जीव, सलेश्यभाव से प्रथम है, अथवा अप्रथम है ?
१. भगवतीसूत्र. अ. वृत्ति, पत्र ७३४