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सतरहवां शतक : उद्देशक - ३
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[२ प्र.] भगवन् ! एजना कितने प्रकार की कही गई है ? .
[२ उ.] गौतम! एजना पांच प्रकार की कही गई है । यथा – (१) द्रव्य - एजना, (२) क्षेत्र - एजना, (३) काल - एजना, (४) भव - एजना और (५) भाव - एजना |
विवेचन — एजना : स्वरूप, प्रकार और अर्थ - योगों द्वारा आत्मप्रदेशों का अथवा पुद्गल-द्रव्यों का चलना (कांपना) ‘एजना' कहलाती है। एजना के पांच भेद हैं। द्रव्य - एजना — मनुष्यादि जीव- द्रव्यों का, अथवा मनुष्यादि जीव-सम्पृक्त पुद्गल द्रव्यों का कम्पन । क्षेत्र - एजना – मनुष्यादि - क्षेत्र में रहे हुए जीवों का कम्पन । काल-एजना— मनुष्यादि काल में रहे हुए जीवों का कम्पन। भाव - एजना — औदयिकादि भावों में रहे हुए नारकादि जीवों का, अथवा तद्गत पुद्गल द्रव्यों का कम्पन । भव-एजना — मनुष्यादि भव में रहे हुए जीव का कम्पन ।'
द्रव्यैजनादि पांच एजनाओं की चारों गतियों की दृष्टि से प्ररूपणा
३. दव्वेयणा णं भंते ! कतिविधा पन्नत्ता ?
गोयमा ! चउव्विहा पन्नत्ता, तं जहा— नेरतियदव्वेयणा तिरिक्खजोणियदव्वेयणा मणुस्सदव्वेयणा देवदव्वेयणा ।
[३ प्र.] भगवन् ! द्रव्य - एजना कितने प्रकार की कही गई है ?
[३ उ.] गौतम ! द्रव्य-अजना चार प्रकार की कही गई है । यथा नैरयिकद्रव्यैजना, तिर्यग्योनिकद्रव्यैजना, मनुष्यद्रव्यैजना और देवद्रव्यैजना ।
४. से केणट्ठेणं भंते ! एवं वुच्चति नेरतियदव्वेयणा, नेरइयदव्वेयणा ?
गोयमा ! जं णं नेरतिया नेरतियदव्वे वट्टिसु वा, वट्टंति वा, वट्टिस्संति वा तेणं तत्थ नेरतिया नेरतियदव्वे वट्टमाणा नेरतियदव्वेयणं एइंसु वा, एयंति वा एइस्संति वा, से तेणट्ठेणं जाव दव्वेयणा ।
[४प्र.] भगवन् ! नैरयिकद्रव्य एजना को नैरयिकद्रव्य एजना क्यों कहा जाता है ?
[४ उ.] गौतम! क्योंकि नैरयिक, जीव, नैरयिकद्रव्य में वर्तित (वर्तमान) थे, वर्त्तते हैं और वर्तेंगे, इस कारण वहाँ नैरयिक जीवों ने, नैरयिकद्रव्य में वर्त्तते हुए, नैरयिकद्रव्य की एजना पहले भी की थी, अब भी करते हैं और भविष्य में भी करेंगे, इसी कारण से वह नैरयिकद्रव्यएजना कहलाती है।
५. से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चति तिरिक्खजोणियदव्वेयणा० ?
एवं चेव, 'नवरं तिरिक्खजोणियदव्वे' भाणियव्वं । सेसं तं चेव ।
[५ प्र.] भगवन् ! तिर्यग्योनिकद्रव्य - एजना तिर्यग्योनिकद्रव्य - एजना क्यों कहलाती है ?
[५ उ.] गौतम! पूर्वोक्त प्रकार से जानना चाहिए । विशेष यह है कि 'नैरयिकद्रव्य' के स्थान पर
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१. (क) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. ५, पृ. २६१८ (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७२६