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________________ पन्द्रहवाँ शतक ४८७ गोशालक ! तुम ऐसा मत करो। तुम्हें ऐसा करना उचित नहीं हैं । हे गोशालक ! तुम वही गोशालक हो, दूसरे नहीं, तुम्हारी वही प्रकृति है, दूसरी नहीं। ७२. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सव्वाणुभूइणा अणगारेणं एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते ५ सव्वाणुभूतिं अणगारं तवेणं तेएणं एगाहच्चं कूडाहच्चं भासरासिं करेति। [७२] सर्वानुभूति अनगार ने जब मंखलिपुत्र गोशालक से इस प्रकार की बातें कही तब वह एकदम क्रोध से आगबबूला हो उठा और अपने तपोजन्य तेज (तेजोलेश्या) से उसने एक ही प्रहार में कूटाघात की तरह सर्वानुभूति अनगार को भस्म कर दिया। ७३. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सव्वाणुभूइं अणगार तवेणं तेएणं एगाहच्चं जाव भासरासिं करेत्ता दोच्चं पि समणं भगवं महावीरं उच्चावयाहिं आओसणाहिं आओसइ जाव सुहमत्थि। [७३] सर्वानुभूति अनगार को भस्म करके वह मंखलिपुत्र गोशालक फिर दूसरी बार श्रमण भगवान् महावीर को अनेक प्रकार के ऊटपटांग आक्रोश वचनों से तिरस्कृत करने लगा, (इत्यादि) यावत्-बोला'आज मेरे द्वारा तुम्हारा शुभ होने वाला नहीं है।' विवेचन—सर्वानुभूति अनगार का भस्मीकरण—यद्यपि भगवान् महावीर ने सभी निर्ग्रन्थ श्रमणों को गोशालक को छेड़ने की मनाई की थी, धर्माचार्य के प्रति अनुरागवश सर्वानुभूति अनगार से न रहा गया, उन्होंने गोशालक को भगवान् द्वारा उसके प्रति किये गए उपकारों का स्मरण कराया, यथार्थ बात कही, जिस पर अत्यन्त कुपित होकर गोशालक ने उन्हें जला कर भस्म कर दिया। यद्यपि भगवान् ने गोशालक की अपेक्षा अनन्त-गुण-विशिष्ट तप-तेज सामान्य अनगार का बताया था, बशर्ते कि वह क्षमा (क्रोधनिग्रह) समर्थ हो। प्रतीत होता है कि सर्वानुभूति अनगार के मन में भगवान् के विषय में गोशालक के यद्वा-तद्वा आक्रोशपूर्ण एवं आक्षेपपूर्ण वचन सुनकर रोष उमड़ आया हो, इसी कारण गोशालक का दाव लग गया हो। कठिन शब्दों का अर्थ—पव्वाविए—प्रव्रजित किया शिष्यरूप से स्वीकार किया। मुंडाविएमुंडित किया—मुण्डित गोशालक को शिष्यरूप में माना। सेहाविए-व्रत-आचार आदि पालन करने की साधना दिखाई, सिक्खाविए—तेजोलेश्यादि के विषय में उपदेश देकर शिक्षित किया। बहुस्सुतीकएनियतिवाद आदि के विषय में हेतु, युक्ति आदि से बहुश्रुत (शास्त्रज्ञ) बनाया। गोशालक द्वारा भगवान् के किये गए अवर्णवाद का विरोध करने वाले सुनक्षत्र अनगार का समाधिपूर्वक मरण ७४. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतेवासी कोसलजाणवए १. भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २४३२ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६८३
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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