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________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र १७-१८-१९—बिरतिद्वार, क्रियाद्वार और बन्धकद्वार २२. ते णं भंते ! जीवा किं विरया, अविरया, विरयाविरया ? गोयमा ! नो विरया, नो विरयाविरया, अविरए वा अविरता वा। [ दारं १७] [२२ प्र.] भगवन् ! वे उत्पल-जीव विरत (सर्वविरत) हैं, अविरत हैं या विरताविरत हैं ? [२२ उ.] गौतम! वे उत्पल-जीव न तो सर्वविरत हैं और न विरताविरत हैं, किन्तु एक जीव अविरत है अथवा अनेक जीव भी अविरत हैं। [- सत्रहवाँ द्वार] २३. ते णं भंते ! जीवा किं सकिरिया, अकिरिया ? गोयमा ! नो अकिरिया, सकिरिए वा सकिरिया वा। [ दारं १८] [२३ प्र.] भगवन् ! क्या वे उत्पल के जीव सक्रिय हैं या अक्रिय हैं ? [२३ उ.] गौतम ! वे अक्रिय नहीं हैं, किन्तु एक जीव भी सक्रिय है और अनेक जीव भी सक्रिय हैं। [– अठारहवाँ द्वार] २४. ते णं भंते ! जीवा किं सत्तविहबंधगा, अट्ठविहबंधगा? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा, अट्ठ भंगा। [दारं १९] [२४ प्र.] भगवन् ! वे उत्पल के जीव सप्तविध (सात कर्मों के) बन्धक हैं या अष्टविध (आठों ही कर्मों के) बन्धक हैं ? ___ [२४ उ.] गौतम ! वे जीव सप्तविधबन्धक हैं या अष्टविधबन्धक हैं। यहाँ पूर्वोक्त आठ भंग कहने चाहिए। [उन्नीसवाँ द्वार] विवेचन—विरत, अविरत, विरताविरत—विरत का अर्थ यहाँ हिंसादि ५ आश्रवों से सर्वथा विरत है। अविरत का अर्थ है—जो सर्वथा विरत न हो और विरताविरत का अर्थ है—जो हिंसादि ५ आश्रवों से कुछ अंशों में विरत हो, शेष अंशों में अविरत हो, इसे देशविरत भी कहते हैं । उत्पल के जीव सर्वथा अविरत होते हैं । वे चाहे बाहर से हिंसादि सेवन करते हुए दिखाई न देते हों, किन्तु वे हिंसादि का त्याग मन से, स्वेच्छा से, स्वरूप समझबूझ कर नहीं कर पाते, इसलिए अविरत हैं। सक्रिय या अक्रिय ?—मुक्त जीव अक्रिय हो सकते हैं। सभी संसारी जीव सक्रिय क्रियायुक्त होते हैं। बन्ध : अष्टविध एवं सप्तविध का तात्पर्य आयुष्यकर्म का बन्ध जीवन में एक ही बार होता है, इसलिए जब आयुष्यकर्म का बन्ध नहीं करता, तब सप्तविधबन्ध करता है, जब आयुकर्म का भी बन्ध करता है, तब अष्टविध बन्ध करता है। इसी दृष्टि से इसके ८ भंग पूर्ववत् होते हैं। २०-२१ संज्ञाद्वार और कषायद्वार २५. ते णं भंते ! जीवा किं आहारसण्णोवउत्ता, भयसण्णोवउत्ता, मेहुणसन्नोवउत्ता, परिग्गह१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. २, पृ. ५१०
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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