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चौदहवाँ शतक : उद्देशक - ७
[२] से केणट्ठेणं भंते ! एवं वुच्चइ 'लवसत्तमा देवा, लवसत्तमा देवा ?'
गोयमा ! से जहानामए केयि पुरिसे तरुणे जाव निउणसिप्पोवगए सालीण वा वीहीण वा गोधूमाण वा जवाण वा जवजवाण वा पिक्काणं परियाताणं हरियाणं हरियकंडाणं तिक्खेणं णवपज्जणणं असियएणं पडिसाहरिया पडिसाहरिया पडिसंखिविय पडिसंखिविय जाव 'इणामेव इणामेव ' त्ति कट्टु सत्त लए लएज्जा, जति णं गोयमा ! तेसिं देवाणं एवतियं कालं आउए पहुप्पंते तो णं ते देवा ते णं चेव भवग्गहणेणं सिज्झता जाव अंतं करेंता । से तेणट्ठेणं जाव लवसत्तमा देवा, लवसत्तमा देवा ।
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[१२-२ प्र.] भगवन् ! उन्हें 'लवसप्तम' देव क्यों कहते हैं ?
[१२-२ उ.] गौतम ! जैसे कोई तरुण पुरुष यावत् शिल्पकला में निपुण एवं सिद्धहस्त हो, वह परिपक्व, काटने योग्य अवस्था को प्राप्त, (पर्यायप्राप्त), पीले पड़े हुए तथा ( पत्तों की अपेक्षा से) पीले जाल वाले, शालि, व्रीहि, गेहूँ, जौ, और जवजव (एक प्रकार का धान्य- विशेष) की बिखरी हुई नालों को हाथ से इकट्ठा करके मुट्ठी में पकड़ कर नई धार पर चढ़ाई हुई तीखी दंराती से शीघ्रतापूर्वक 'ये काटे, ये काटे' – इस प्रकार सात लवों (मुट्ठों) को जितने समय में काट लेता है, हे गौतम! यदि उन देवों का इतना (सात लवों को काटने जितना समय (पूर्वभव का) अधिक आयुष्य होता तो वे उसी भव में सिद्ध हो जाते, यावत् सर्व- दुखों का अन्त कर देते हैं । इसी कारण से, हे गौतम ! (सात लव का आयुष्य कम होने से) उन देवों को 'लवसप्तम' कहते हैं ।
विवेचन — प्रस्तुत सूत्र (सू. १२, १ - २ ) में बताया है कि अनुत्तरौपपातिक देवों में कुछ ऐसे देव होते हैं, जिनका आयुष्य सात लव अधिक होता तो वे सर्वार्थसिद्ध देव न होकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाते। इसी कारण से इन्हें ‘लवसप्तम' कहा है, इस तथ्य को धान्य के मुट्ठों (लयनीय अवस्था प्राप्त कवलियों) के दृष्टान्तपूर्वक समझाया गया है।
कठिन शब्दार्थ ——परियायाणं— काटने योग्य अवस्था ( पर्याय) को प्राप्त । हरियाणं - पिंगल (पीले) पड़े हुए। हरिय-कंडाणं - पीले पड़े हुए जाल वाले (अथवा पीली नाल वाले)। णवपज्जणएणं - ताजे लोहे को आग में तपा कर घन से कूट कर तीखे किये हुए। असियएणं — दात्र से—दराँती से । पडिसाहरियाबिखरी हुई नालों को हाथ से इकट्ठी करके, संखिविया — मुट्ठी में पकड़ कर
लवसप्तम देव नाम क्यों पड़ा ? – शालि आदि धान्य का एक मुट्ठा (कवलिया) काटने में जितना समय लगता है, उसे 'लव' कहते हैं। ऐसा सात लव परिमाण आयुष्य (पूर्वभव - मनुष्यभव में) कम होने से वे विशुद्ध अध्यवसाय वाले मानव मोक्ष में नहीं जा सके, किन्तु सवार्थसिद्धि विमान में उत्पन्न हुए । इसी कारण से वे 'लवसप्तम' कहलाते हैं ।
१. वियाहपण्णत्तिसुतं भा २ ( मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. ६७७-६७८
२. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६५१
३. वही, अ. वृत्ति, पत्र ६५१