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________________ चौदहवाँ शतक : उद्देशक-७ ४०५ चिरझुसिए— चिरजूषित — चिरकाल से तू मरे साथ सेवित है, अथवा चिरकाल से तेरी मेरे प्रति प्रीति रही है। चिराणुगए— चिरानुगत, चिरकाल से तू मेरा अनुगामी— अनुसरणकर्त्ता है । चिराणुवित्ती— चिरानुवृत्ति, चिरकाल से तेरी वृत्ति मेरे अनुकूल रही है। इओ चुए— इस मनुष्यभव से च्युत होने पर। एगट्ठा : दो रूप : दो अर्थ - ( १ ) एकार्थ — एक (समान) अनन्तसुखरूप अर्थ - प्रयोजन वाले, (२) एकस्थ — सिद्धिक्षेत्र की अपेक्षा से एक क्षेत्राश्रित । अविसेसमणाणत्ता — ज्ञान - दर्शनादिपर्यायों में एक समान तथा अभिन्न ( भिन्नतारहित ) । अनुत्तरौपपातिक देवों की जानने-देखने की शक्ति की प्ररूपणा ३. [ १ ] जहा णं भंते ! वयं एयमट्ठे जाणामो पासामो तहा णं अणुत्तरोवातिया वि देवा एयमट्ठ जाणंति पासंति ? हंता ! गोयमा ! जहा णं वयं एयमट्ठे जाणामो पासामो तहा अणुत्तरोववातिया वि देवा एयमट्ठे जाणंति पासंति । [३-१ प्र.] भगवन् ! जिस प्रकार अपन दोनों इस (पूर्वोक्त) अर्थ को जानते-देखते हैं, क्या उसी प्रकार अनुत्तरौपपातिक देव भी इस अर्थ (बात) को जानते-देखते हैं ? [३-१ उ.] हाँ, गौतम ! जिस प्रकार अपन दोनों इस (पूर्वोक्त) बात को जानते - देखते हैं, उसी प्रकार अनुत्तरोपपातिक देव भी इस अर्थ को जानते-देखते हैं । [२] से केणट्टेणं जाव पासंति ? गोयमा ! अणुत्तरोवातियाणं अणंताओ मणेदव्ववग्गणाओ लद्धाओ पत्ताओ अभिसमन्नागयाओ भवंति से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चति जाव पासंति । [३-२ प्र.] भगवन् ! क्या कारण है कि जिस प्रकार हम दोनों इस बात को जानते-देखते हैं, उसी प्रकार अनुत्तरौपपातिक देव भी जानते-देखते हैं ? [३-२ उ.] गौतम ! अनुत्तरौपपातिक देवों को ( अवधिज्ञान की लब्धि से ) मनोद्रव्य की अनन्त वर्गणाएँ (ज्ञेयरूप) लब्ध (उपलब्ध) हैं, प्राप्त हैं, अभिसमन्वागत होती हैं । इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि यावत् अनुत्तरौपपातिक देव भी जानते-देखते हैं । विवेचन — प्रश्नोत्थान का आशय — भगवान् के कथन से आश्वासन पा कर गौतमस्वामी ने दूसरा प्रश्न उठाया — भगवन् ! भविष्य में इस भव के छूटने पर हम दोनों तुल्य और ज्ञान- दर्शनादि में समान हो जाएँगे, यह बात आप तो केवलज्ञान से जानते हैं, मैं आपके कथन से जानता हूँ, किन्तु क्या अनुत्तरौपपातिक देव भी यह बात जानते-देखते हैं ? यह इस प्रश्न का आशय I १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६४७
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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