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________________ चौदहवां शतक : उद्देशक-३ ३७९ भावितात्मा अनगार को देखता है। देख कर वन्दना-नमस्कार, सत्कार-सम्मान करता है, यावत् (कल्याण, मंगल, देव एवं ज्ञानमय मानता है) तथा पर्युपासना करता है। ऐसा वह देव भावितात्मा अनगार के बीच में होकर नहीं जाता। २. असुरकुमारे णं भंते ! महाकाये महासरीरे०, एवं चेव। [२ प्र.] भगवन् ! क्या महाकाय और महाशरीर असुरकुमार देव भावितात्मा अनगार के मध्य में होकर जाता है ? [२ उ.] गौतम ! इस विषय में पूर्ववत् समझना चाहिए। ३. एवं देवदंडओ भाणियव्वो जाव वेमाणिए। [३] इसी प्रकार देव-दण्डक (भवनपति, वाणव्यन्तर ज्योतिष्क और) वैमानिकों तक कहना चाहिए। विवेचन—जो देव मायी-मिथ्यादृष्टि होता है, वह भावितात्मा अनगार के बीच में होकर निकल जाता है, क्योंकि वह अनगार को देख कर भी उसके प्रति भक्तिमान् नहीं होता है। इसलिए उसे वन्दनादि नहीं करता, न उसे कल्याण-मंगलादि रूप मान कर उसकी उपासना करता है। इसके विपरीत अमायी-सम्यग्दृष्टि देव, भावितात्मा अनगार को देखते ही उसे वन्दनादि करता है, कल्याणादि रूप मान कर उसकी उपासना करता है। अत: वह उसके बीच में होकर नहीं जाता। ऐसा चारों ही प्रकार के देवों के लिए कहा गया है। देव-दण्डक ही क्यों ?—देव-दण्डक का आशय है—चारों जाति के देवों में ही इस प्रकार की सम्भावना है। नैरयिकों तथा पृथ्वीकायिकादि जीवों के पास ऐसे साधन तथा सामर्थ्य सम्भव नहीं है। इसलिए इस प्रसंग में देव-दण्डक ही कहा गया है। महाकाय, महाशरीर : दोनों में अन्तर—यद्यपि काय और शरीर दोनों का अर्थ एक ही है, परन्तु यहाँ दोनों का अर्थ पृथक्-पृथक् है । यहाँ महाकाय का अर्थ है—प्रशस्तकाय वाला अथवा (बड़े) विशाल निकायपरिवार वाला। महाशरीर का अर्थ है—विशालकाय शरीर वाला। वीयीवएज्जा—चला जाता है, लांघ जाता चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में सत्कारादि विनय-प्ररूपणा ४. अस्थि णं भंते ! नेरइयाणं सक्कारे इ वा सम्माणे इ वा किइकम्मे इ वा अब्भुटाणे इ वा अजंलिपग्गहे इ वा आसणाभिग्गहे वि आसणाणुप्पदाणे इ वा, एतस्स पच्चुग्गछणया, ठियस्स १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. ६६३-६६४ २. भगवती. अ. वृत्ति. पत्र ६३७ ३. महान् बृहन् प्रशस्तो वा कायो-निकायो यस्य स महाकायः। महासरीरे त्ति बृहत्तनुः॥ - भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६३६
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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