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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सम्बद्ध रहने की बात नर्तकी के दृष्टान्त द्वारा समझाई गई है। इस प्रकार लोक के सम्बन्ध में स्पष्ट प्ररूपणा की गई है। ग्यारहवें उद्देशक के पूर्वार्द्ध में काल और उसके चार मुख्य प्रकारों का वर्णन है। फिर इन चारों का पृथक्-पृथक् विश्लेषण किया गया है। प्रमाणकाल में दिन और रात का विविध महीनों में विविध प्रमाण बताया गया है। उत्तरार्द्ध में पल्योपम और सागरोपम के क्षय और उपचय को सिद्ध करने के लिए भगवान् ने सुदर्शन श्रेष्ठी के पूर्वकालीन मनुष्यभव एवं फिर देवभव में पंचम ब्रह्मलोक कल्प की १० सागरोपम की स्थिति का क्षय-अपचय करकें पुनः मनुष्यभव प्राप्ति का विस्तृत रूप से उदाहरण जीवनवृत्तात्मक प्रस्तुत किया है। अन्त में सुदर्शन श्रेष्ठी को जातिस्मरणज्ञान होने से उसकी श्रद्धा और संविग्नता बढ़ी और वह निर्ग्रन्थ प्रव्रज्या लेकर सिद्ध बुद्ध मुक्त हुआ, इसका वर्णन है। बारहवें उद्देशक में दो महत्त्वपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत किए हैं—(१) पूर्वार्द्ध में ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक का, जिसने देवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति यथार्थ रूप में बताई थी, परन्तु आलभिका के श्रमणोपासकों ने उस पर प्रतीति नहीं की, तब भगवान् ने उनका समाधान कर दिया। (२) उत्तरार्द्ध में मुद्गल पारिव्राजक का जीवन-वृतान्त है, जो लगभग शिवराजर्षि के जीवन जैसा ही है। इन्होंने भी सच्चा समाधान पाने के बाद निर्ग्रन्थ-प्रव्रज्या लेकर अपना कल्याण किया। वे कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त हो गए।
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