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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
धर्मास्तिकाय द्रव्य अवगाढ होता है, वहाँ धर्मास्तिकाय का अन्य एक भी प्रदेश अवगाढ नहीं होता। क्योंकि उसमें प्रदेशान्तरों का अभाव है । अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के वहाँ असंख्येय प्रदेश अवगाढ होते हैं । जीवास्तिकाय, पुदगलास्तिकाय और अद्धासमय के अनन्त प्रदेश होते हैं, इसलिए इन पर अनन्त प्रदेश अवगाढ होते हैं।
पांच एकेन्द्रियों का परस्पर अवगाहना-निरूपण: दसवाँ जीवावगाढद्वार
६४. [ १ ] जत्थ णं भंते ! एगे पुढविकाइए ओगाढे तत्थ केवतिया पुढविकाइया ओगाढा ? असंखेज्जा ।
[६४-१ प्र.] भगवन् ! जहाँ एक पृथ्वीकायिक जीव अवगाढ होता है, वहाँ दूसरे कितने पृथ्वीकायिक जीव अवगाढ होते हैं ?
[६४-१ उ.] (गौतम ! वहाँ ) असंख्य (पृथ्वीकायिक जीव अवगाढ होते हैं ।)
[२] केवतिया आउक्काइया ओगाढा ?
असंखेज्जा ।
[६४-२ प्र. ] (भगवन् ! वहाँ) कितने अप्कायिक जीव अवगाढ होते हैं ? [६४-२ उ. ] (गौतम ! वहाँ अप्कायिक) असंख्य जीव (अवगाढ होते हैं ।) [३] केवतिया तेउकाइया ओगाढा ?
असंखेज्जा ।
[६४-३ प्र.] (भगवन् ! वहाँ) कितने तेजस्कायिक जीव अवगाढ़ होते हैं ? [६४-३ उ.] ( गौतम ! वहाँ तेजस्काय के) असंख्य जीव (अवगाढ होते हैं ।) [ ४ ] केवतिया वाउ० ओगाढा ?
असंखेज्जा ।
[६४-४ प्र.] (भगवन् ! वहाँ ) वायुकायिक जीव कितने अवगाढ होते हैं ? [६४-४ उ. ] ( गौतम ! वहाँ ) असंख्य जीव ( अवगांढ होते हैं ।)
[५] केवतिया वणस्सतिकाइया ओगाढा ?
अनंता ।
[६४-५ प्र.] (भगवन् ! वहाँ) कितने वनस्पतिकायिक जीव अवगाढ होते हैं ?
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति पत्र ६१५
(ख) भगवतीसूत्र (हिन्दीविवेचन ) भा. ५, पृ. २२२१