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________________ ३०८ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [६१-४ उ.] (वहाँ उसके) अनन्त प्रदेश (अवगाढ होते हैं)। [५] एवं जाव अद्धा समया। [६१-५] इसी प्रकार यावत् अद्धासमय (तक कहना चाहिए।) ६२. [१] जत्थ णं भंते ! अहम्मऽथिकाये ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मऽत्थिकाय ? असंखेज्जा। [६२-१ प्र.] भगवन् ! जहाँ एक अधर्मास्तिकाय द्रव्य अवगाढ होता है, वहाँ धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ होते हैं? [६२-१ उ.] (गौतम ! वहाँ धर्मास्तिकाय के) असंख्येय प्रदेश अवगाढ होते हैं। [२] केवतिया अहम्मत्थि० ? नत्थि एक्को वि। [६२-२ प्र.] (वहाँ) अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ होते हैं ? । [६२-२ उ.] (अधर्मास्तिकाय का) एक भी प्रदेश (वहाँ) अवगाढ नहीं होता। [३] सेसं जहा धम्मऽस्थिकायस्स। [६२-३] शेष सभी कथन धर्मास्तिकाय के समान करना चाहिए। ६३. एवं सब्वे सट्टाणे नत्थि एक्को वि भाणियव्वं। परट्ठाणे आदिल्लगा तिन्नि असंखेजा भाणियव्वा, पच्छिल्लगा तिन्नि अणंता भाणियव्वा जाव अद्धासमओ त्ति—जाव केवतिया अद्धासमया ओगाढा ? नत्थि एक्को वि। [६३] इसी प्रकार धर्मास्तिकायादि सब द्रव्यों के स्वस्थान' में एक भी प्रदेश नहीं होता; किन्तु परस्थान में प्रथम के तीन द्रव्यों (धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय) के असंख्येय प्रदेश कहने चाहिए; और पीछे के तीन द्रव्यों (जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अद्धासमय) के अनन्त प्रदेश कहने चाहिए। यावत्-[प्र.] (एक अद्धाकाल द्रव्य में) कितने अद्धासमय अवगाढ होते हैं ? [उ.] एक भी अवगाढ नहीं होता; (इस प्रकार) 'अद्धासमय' तक कहना चाहिए। विवेचन—प्रस्तुत १२ सूत्रों (सू. ५२ से ६३ तक) में नौवें अवगाहनाद्वार के माध्यम से धर्मास्तिकाय आदि के एक, दो, यावत् दस, संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश अवगाहित होने की स्थिति में परस्पर उन्हीं धर्मास्तिकायादि के प्रदेशों की अवगाहना की प्ररूपणा की गई है। अन्त में धर्मास्तिकायादि प्रत्येक समग्र द्रव्य हो, वहाँ धर्मास्तिकायादि छह के प्रदेशों का भी निरूपण किया गया है।
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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