SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 307
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ततिओ उद्देसओ: अणंतर तृतीय उद्देशक : नैरयिकों के अनन्तराहारादि चौवीस दण्डकों में अनन्तराहारादि यावत् परिचारणा की प्ररूपणा १. नेरतिया णं भंते ! अणंतराहारा ततो निव्वत्तणया। एवं परियारणापदं निरवसेसं भाणियव्वं। सेवं भंते ! सेव भंते ! त्ति०। ॥तेरसमे सए : ततिओ उद्देसओ समत्तो॥ __ [१ प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक जीव (उपपात-उत्पत्ति) क्षेत्र को प्राप्त करते ही अनन्तराहारी होते हैं (अर्थात्-प्रथम समय में ही आहारक हो जाते हैं) ? इसके बाद निर्वर्तना (शरीर की उत्पत्ति) करते हैं ? (क्या इसके पश्चात् वे लोमाहारादि द्वारा पुद्गलों को ग्रहण करते हैं ? फिर उन पुद्गलों को इन्द्रियादिरूप में परिणत करते हैं ? क्या इसके पश्चात् वे परिचारणा-शब्दादि विषयों का उपभोग करते हैं ? फिर अनेक प्रकार के रूपों की विकुर्वणा करते हैं ?) इत्यादि प्रश्न। [१ उ.] (हाँ, गौतम ! ) वे इसी (पूर्वोक्त) प्रकार से करते हैं। (इसके उत्तर में) प्रज्ञापना सूत्र का चौतीसवाँ परिचारणापद समग्र कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। विवेचन—प्रस्तुत सूत्र में नारकों के द्वारा उत्पत्तिक्षेत्र प्राप्त करते ही आहार के होने, फिर शरीरोत्पत्ति करने, लोमाहारादि द्वारा पुद्गलों को ग्रहण करने, फिर उन पुद्गलों को इन्द्रियादि रूप में परिणत करने एवं शब्दादि विषयभोग द्वारा परिचारणा करने और फिर नाना रूपों की विकुर्वणा करने आदि के विषय में प्रश्न उठाकर प्रज्ञापनासूत्र के ३४वें समग्र परिचारणापद का अतिदेश करके समाधान किया गया है। ॥ तेरहवां शतक : तृतीय उद्देशक समाप्त॥ ००० १. देखिये प्रज्ञापनासूत्र का ३४ वाँ परिचारणापद
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy