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तेरहवां शतक : उद्देशक-२
२७१ सहस्रार में ६ हजार विमानावास हैं। आनत और प्राणत कल्प में ४०० विमान हैं तथा आरण और अच्युत कल्प में ३०० विमानावास हैं। नौ ग्रैवेयक के प्रथम त्रिक में १११, द्वितीय त्रिक में १०७ और तृतीय त्रिक में १०० विमान है एवं पांच अनुत्तर विमानों में ५ विमान हैं, इस प्रकार सौधर्म से अनुत्तर विमानों तक कुल विमानों की संख्या ८४,९७,०२३ होती है।
लेश्या में विभिन्नता इस प्रकार है—प्रथम और द्वितीय कल्प में तेजोलेश्या है; तृतीय, चतुर्थ और पंचम कल्प में पद्मलेश्या अर्थात्-तीसरे में तेजो-पद्म, चौथे में पद्म-शुक्ल लेश्या होती है तथा इनसे आगे के समस्त कल्पों, नौ ग्रैवेयकों एवं पांच अनुत्तर विमानों में केवल एक शुक्ललेश्या है। सातवें महाशुक्र से लेकर सर्वार्थसिद्ध तक परमशुक्ल लेश्या मानी जाती है।
आनतादि देवलोकों में उत्पादादि का अन्तर–आनत आदि देवलोकों में से संख्यात योजन विस्तृत विमानावासों में उत्पाद, च्यवन और सत्ता में संख्यात देव होते हैं। असंख्यात योजन विस्तृत आनतादि विमानों में
च्यवन में संख्यात तथा सत्ता में असंख्यात देव होते हैं क्योंकि गर्भज मनष्य ही मरकर आनतादि देवों में उत्पन्न होते हैं और वे देव भी, वहाँ से च्यव कर गर्भज मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं तथा गर्भज मनुष्य संख्यात ही होते हैं। इसलिए एक समय में उत्पाद भी संख्यात का और च्यवन भी संख्यात का हो सकता है। उन देवों का आयुष्य असंख्यात वर्ष का होता है, इसलिए उनके जीवनकाल में असंख्यात देव उत्पन्न होते हैं, इसलिए उनकी अवस्थिति (सत्ता) में असंख्यात की प्ररूपणा की गई है। किन्तु नो-इन्द्रियोपयुक्त आदि पाँच पदों में उत्कृष्ट संख्यात की प्ररूपणा की गई है, क्योंकि इनका सद्भाव उत्पत्ति के समय ही रहता है और उत्पत्ति संख्यात की ही होती है, यह पहले कहा जा चुका है।
पांच अनुत्तर विमानों में उत्पादादि-अनुत्तर विमान पांच हैं—(१) विजय, (२) वैजयन्त, (३) जयन्त, (४) अपराजित और (५) सर्वार्थसिद्ध। सर्वार्थसिद्ध विमान इन चारों विमानों के मध्य में है। वह एक लाख योजन विस्तृत है, इसलिए संख्यात-योजन विस्तृत कहा गया है। शेष विजयादि चार अनुत्तर विमान असंख्यात योजन विस्तृत हैं। इनमें केवल सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्पन्न होते हैं, इसलिए इनके तीनों आलापकों में कृष्णपाक्षिक, अभव्य एवं तीन अज्ञान वाले जीवों का निषेध किया गया है।
चरम-अचरम—जिस जीव का अनुत्तरविमान सम्बन्धी अन्तिम भव है, उसे 'चरम' कहा जाता है और जिस जीव का अनुत्तरविमान-सम्बन्धी भव अन्तिम नहीं है, उसे 'अचरम' कहा जाता है सर्वार्थसिद्ध विमान में केवल चरम ही उत्पन्न होते हैं, इसलिए इसमें अचरम का निषेध किया गया है। किन्तु शेष विजयादि चार अनुत्तरविमानों में तो 'अचरम' भी उत्पन्न होते हैं। १. (क) भगवती. (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भा. १०, पृ. ५४५
(ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६०३ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६०४ ३. भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. ५, २१७२ ४ भगवती. (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भा. १०, पृ. ५५३