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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र किये हुए अपराध को सहन नहीं करना। (६) संज्वलन—बार बार क्रोध से प्रज्वलित होना। (७) कलहवाक्-युद्ध करना, परस्पर अनुचित शब्द बोलना। (७) चाण्डिक्य—रौद्ररूप धारण करना। (९) भण्डनदण्ड आदि से परस्पर लड़ाई करना। (१०) विवाद-परस्पर विरोधी बात कहकर झगड़ा या विवाद करना। क्रोधादि में पूर्ववत् वर्णादि पाए जाते हैं।
मान और उसके समानार्थक बारह नामों के विशेषार्थ—(१) मान-अपने आपको दूसरों से उत्कृष्ट समझना अथवा अभिमान के परिणाम का जनक कषाय मान कहलाता है। (२) मद-जाति आदि का दर्प या अहंकार करना, हर्षावेश में उन्मत्त होना। (३) दर्प- (दृप्तता) घमण्ड में चूर होना। (४) स्तम्भ-नम्र न होना, स्तम्भवत् कठोर बने रहना। (५) गर्व-अहंकार। (६) अत्युत्क्रोश-स्वयं को दूसरे से उत्कृष्ट मानना या बताना। (७) परपरिवाद—परनिन्दा करके अपनी ऊँचाई की डींगें हाँकना, अथवा परपरिपातदूसरों को लोगों की दृष्टि में गिराना या उच्चगुणों से पतित करना। (८) उत्कर्ष—क्रिया से अपने आपको उत्कृष्ट मानना; अथवा अभिमानपूर्वक अपनी समृद्धि, शक्ति, क्षमता, विभूति आदि प्रकट करना। (९) अपकर्ष-अपने से दूसरे को तुच्छ बताना, अभिमान से अपना या दूसरों का अपकर्ष करना, (१०) उन्नत-नमन से दूर रहना, अभिमानपूर्वक तने रहना-अक्खड़ रहना। अथवा उन्नय-अभिमान से नीति-न्याय का त्याग करना। (११) उन्नाय-वन्दनयोग्य पुरुष को भी वन्दन न करना, अथवा अपने को नमन करने वाले पुरुष के प्रति मदवश उपेक्षा करना—सद्भाव न रखना। और (१२) दुर्नाम-वन्द्य पुरुष को अभिमानवश बुरे ढंग से वन्दन-नमन करना। स्तम्भादि सभी मान के कार्य हैं अथवा मानवाचक शब्द हैं।
माया और उसके एकार्थक शब्दों का विशेषार्थ-(१) माया—छल-कपट करना, (२) उपधिकिसी को ठगने के लिए उसके समीप जाने का दुर्भाव करना, (३) निकृति—किसी के प्रति आदर-सम्मान बताकर फिर उसे ठगना; अथवा पूर्वकृत मायाचार को छिपाने के लिए दूसरी माया करना। (४) वलय वलय की तरह गोल-गोल (वक्र) वचन कहना या अपने चक्कर में फंसाना, वाग्जाल में फंसाना । (५) गहन-दूसरे को मूढ़ बनाने के लिए गूढ (गहन) वचन का जाल रचना। अथवा दूसरे की समझ में न आए, ऐसे गहन (गूढ) अर्थ वाले शब्द-प्रयोग करना। (६) नूम-दूसरों को ठगने के लिए नीचता का या निम्नस्थान का आश्रय लेना। (७) क़ल्क-कल्क अर्थात् हिंसारूप पाप, उस पाप के निमित्त से वंचना करने का अभिप्राय भी कल्क है। (८) कुरूपा—कुत्सित रूप से मोह उत्पन्न करके ठगने की प्रवृत्ति । (९) जिह्मता—कुटिलता, दूसरे को ठगने की नीयत से क्रियामन्दता या वक्रता अपनाना। (१०) किल्विष—मायाविशेषपूर्वक किल्विषिता अपनाना, किल्विषी जैसी प्रवृत्ति करना। (११) आदरणता—(आचरणता) मायाचार से किसी का आदर करना, अथवा किसी वस्तु या वेष को अपनाना, अथवा दूसरों को ठगने के लिए विविध क्रियाओं का आचरण करना। (१२) गूहनता-अपने स्वरूप को गूहन करना—छिपाना। (१३) वंचनता–दूसरों को ठगना। (१४) प्रतिकुञ्चनता-सरलभाव से कहे हुए वाक्य का खण्डन करना या विपरीत अर्थ लगाना और (१५) सातियोग–अविश्वासपूर्ण सम्बन्ध अथवा उत्कृष्ट द्रव्य के साथ निकृष्ट द्रव्य का संयोग कर देना। ये सभी माया के पर्यायवाचक शब्द हैं।
लोभ और उसके समानार्थक शब्दों का विशेषार्थ—(१) लोभ-यह लोभ कषाय का वाचक