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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [१८] तदनन्तर वह पुष्कली श्रमणोपासक, शंख श्रमणोपासक की पौषधशाला से लौटा और श्रावस्ती नगरी के मध्य में से होकर, जहाँ वे (साथी) श्रमणोपासक थे, वहाँ आया। फिर उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार बोला—'देवानुप्रियो ! शंख श्रमणोपासक निराहार-पौषधव्रत अंगीकार करके पौषधशाला में स्थित है। (उसने कह दिया कि "देवानुप्रियो ! तुम सब स्वेच्छानुसार उस विपुल अशनादि आहार को परस्पर देते हुए यावत् उपभोग करते हुए पौषध का अनुपालन कर लो। शंख श्रमणोपासक अब नहीं आएगा।"
१९. तए णं ते समणोवासगा तं विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं आसाएमाणा जाव विहरंति।
[१९] यह सुन कर उन श्रमणोपासकों ने उस विपुल अशन-पान-खाद्य-स्वाद्यरूप आहार को खातेपीते हुए यावत् पौषध करके धर्मजागरणा की।
विवेचन—प्रस्तुत दो सूत्रों (१८-१९) में वर्णन है कि पुष्कली द्वारा शंख श्रमणोपासक के निराहार पौषध करने और हमें स्वेच्छा से आहार करते हुए पौषध करने की सम्मति देने का वृत्तान्त सुनाने पर सबने मिलकर आहारपूर्वक पौषध का अनुपालन किया। शंख एवं अन्य श्रमणोपासक भगवान् की सेवा में
२०. तएणं तस्स संखस्स समणोवासगस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था—'सेयं खलु मे कल्लं पादु० जाव जलंते समणं भगवं महावीरं वंदित्ता नमंसित्ता जाव पज्जुवासित्ता तओ पडिनियत्तस्स पक्खियं पोसहं पारित्तए'त्ति कट्ट एवं संपेहेति, एवं सं० २ कल्लं जाव जलंते पोसहसालाओ पडिनिक्खति, पो० प० २ सुद्धप्पावेसाइं मंगल्लाइं वत्थाई . पवर परिहिते सयातो गिहातो पडिनिक्खमति, स० प० २ पायविहारचारेणं सावत्थिं णगरि मझमझेणं जाव पज्जुवासति। अभिगमो नत्थि। - [२०] इधर उस शंख श्रमणोपासक को पूर्वरात्रि व्यतीत होने पर, पिछली रात्रि के समय में धर्मजागरिकापूर्वक जागरणा करते हुए इस प्रकार अध्यवसाय यावत् (संकल्प) उत्पन्न हुआ—'कल प्रात:काल यावत् जाज्वल्यमान सूर्योदय होने पर मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करके यावत् उनकी पर्युपासना करके वहाँ से लौट कर पाक्षिक पौषध पारित करूँ। उसने इस प्रकार का पर्यालोचन किया और फिर (तदनुसार) प्रात:काल सूर्योदय होने पर अपनी पौषधशाला से बाहर निकला। शुद्ध (स्वच्छ) एवं सभा में प्रवेश करने योग्य मंगल (मांगलिक) वस्त्र ठीक तरह से पहने, और अपने घर से चला। वह पैदल (पादविहारपूर्वक) चलता हुआ श्रावस्ती नगरी के मध्य में होकर भगवान् की सेवा में पहुँचा, यावत् उनकी पर्युपासना करने लगा। वहाँ अभिगम नहीं (कहना चाहिए।)
२१. तए णं ते समणोवासगा कल्लं पादु० जाव जलंते ण्हाया कयबलिकम्मा जाव सरीरा सएहिं सएहिं गिहेहिंतो पडिनिक्खमंति, स० प० २ एगयओ मिलायंति, एगयओ मिलाइत्ता सेसं जहा पढमं जाव पज्जुवासंति।