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बारहवां शतक : उद्देशक-१
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वस्तुओं को छोड़ कर । ववगयमाला-वण्णग-विलेवणस्स—माला, वर्णक (सुगन्धितचूर्ण—पाउडर) एवं विलेपन से रहित हो कर। आहार तैयार करने के बाद शंख को बुलाने के लिए पुष्कली का गमन
१३. तए णं ते समणोवासगा जेणेव सावत्थी नगरी जेणेव साइं साइं गिहाइं तेणेव उवागच्छंति, ते० उ० २ विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेंति, उ० २ अन्नमन्ने सद्दावेंति, अनं० स० २ एवं वयासी—एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हेहिं से विउले असण-पाण-खाइम-साइमे उवक्खडाविते, संखे य णं समणोवासए नो हव्वमागच्छइ। तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अहं संखं समणोवासगं सद्दावेत्तए।'
। [१३] तत्पश्चात् वे श्रमणोपासक श्रावस्ती नगरी में अपने-अपने घर पहुंचे और उन्होंने पुष्कल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य (चतुर्विध आहार) तैयार करवाया। फिर उन्होंने एक दूसरे को बुलाया और परस्पर इस प्रकार कहने लगे—देवानुप्रियो ! हमने तो (शंख श्रमणोपासक के कहे अनुसार) पुष्कल अशन, पान, खाद्य
और स्वाद्य (आहार) तैयार करवा लिया; परन्तु शंख श्रमणोपासक जल्दी (अभी तक) नहीं आए, इसलिए देवानुप्रियो ! हमें शंख श्रमणोपासक को बुला लाना श्रेयस्कर (अच्छा) है।
१४. तए णं से पोक्खली समणोवासए ते समणोवासए एवं वयासी—'अच्छह ण तुब्भे देवाणुप्पिया ! सुनिव्वुया वीसत्था, अहं णं संखं समणोवासगं सद्दावेमि' त्ति कट्ट तेसिं समणोवासगाणं अंतियाओ पडिनिक्खमति, प० २ सावत्थीनगरीमझमझेणं जेणेव संखस्स समणोवासयस्स गिहे तेणेव उवागच्छति, ते० उ० २ संखस्स समणोवासगस्स गिहं अणुपवितु।
[१४] इसके बाद उस पुष्कली नामक श्रमणोपासक ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा"देवानुप्रियो ! तुम सब अच्छी तरह स्वस्थ (निश्चित) और विश्वस्त होकर बैठो, (विश्राम लो), मैं शंख श्रमणोपासक को बुलाकर लाता हूँ।" यों कह कर वह उन श्रमणोपासकों के पास से निकल कर श्रावस्ती नगरी के मध्य में होकर जहाँ शंख श्रमणोपासक का घर था, वहाँ आकर उसने शंख श्रमणोपासक के घर में प्रवेश किया।
विवेचन—प्रस्तुत दो सूत्रों (१३-१४) में, उक्त श्रमणोपासकों द्वारा भोजन तैयार कराने के बाद जब शंख श्रमणोपासक नहीं आया तो उसे बुलाने के लिए पुष्कली श्रमणोपासक का उसके घर पहुंचने का वर्णन है।
कठिन शब्दार्थ—नो हव्व-मागच्छइ-जल्दी नहीं आया अथवा अभी तक नहीं आया। अच्छहबैठो। सुनिव्वुया-अच्छी तरह शान्त, या स्वस्थ अथवा निश्चित । वीसत्था—विश्वस्त होकर।
१. भगवतीसूत्र, (विवेचन, पं. घेवरचन्दजी), भा. ४, पृ. १९७४ २. पाइयसद्दमहण्णवो, पृ. ९४३, २०, ४१२, ८१४