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________________ ग्यारहवाँ शतक : उद्देशक-१२ १०१ (६-७-८) में तीन घटनाओं का उल्लेख किया गया है—(१) आलभिका नगरी में भगवान् का पदार्पण, (२) पदार्पण सुन कर असन्तुष्ट श्रमणोपासकों द्वारा भगवदुपासना एवं (३) भगवान् द्वारा धर्मोपदेश प्रदान से वे सन्तुष्ट, श्रद्धावान् एवं आज्ञाराधक। ९. तए णं ते समणोवासया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठ० उद्वेति, उ० २ समणं भगवं महावीरं वंदंति नमसंति, वं० २ वदासी—एवं खलु भंते ! इसिभद्दपुत्ते समणोवासए अम्हं एवं आइक्खति जाव परूवेति—देवलोएसु णं अजो- ! देवाणं जहन्नेणं दसवाससहस्साई ठिती पन्नत्ता, तेण परं समयाहिया जाव तेण परं वोच्छिन्ना देवा ये देवलोगा य। से कहमेतं भंते ! एवं? [९] तत्पश्चात् वे श्रमणोपासक श्रमण भगवान् महावीर के पास से धर्म-(धर्मोपदेश) श्रवण कर एवं अवधारण करके हृष्ट-तुष्ट हुए। फिर वे स्वयं उठे और खड़े होकर उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दननमस्कार किया और इस प्रकार पूछा [प्र.] भगवन् ! ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक ने हमें इस प्रकार कहा, यावत् प्ररूपणा की हे आर्यो ! देवलोकों में देवों की स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष कही गई है। उसके आगे एक-एक समय अधिक यावत् (पूर्ववत् उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की कही गई है,) इसके बाद देव और देवलोक विच्छिन्न हैं, नहीं हैं। तो क्या भगवन् ! यह बात ऐसी ही है ? १०. अजो!'त्ति समणे भगवं महावीरे ते समणोवासए एवं वयासी—जंणं अज्जी ! इसिभहपुत्ते समणोवासए तुब्भं एवं आइक्खइ जाव परूवेइ–देवलोगेसुणं अज्जो ! देवाणं जहन्नेणं दस वाससहस्साई ठिई पण्णत्ता तेण परं समयाहिया जाव तेण परं वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य। सच्चे णं एसमढे। अहं पिणं अज्जो! एघमाइक्खामि जा हैपरूवेमि–देवसोगेसु णं अज्जो ! देवाणं जहन्नेण दस वाससहस्साइं० तं चेव जाव वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा या सच्चेणं एसमटे। । [१०. उ.] आर्यो ! इस प्रकार का सम्बोधन करते हुए श्रमण भगवान् महावीर ने उन श्रमणोपासकों को तथा उस बड़ी (विशाल) परिषद् को इस प्रकार कहा—हे आर्यो ! ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक ने जो तुमसे इस प्रकार (पूर्वोक्त) कहा था, यावत् प्ररूपणा की थी कि देवलोकों में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है, उसके आगे एक समय अधिक, यावत् (उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की है) इसके आगे देव और देवलोक विच्छिन्न हैं—यह अर्थ (बात) सत्य है। हे आर्यो ! मैं भी इसी प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि देवलोकों में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है, यावत् उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की है, यावत् इससे आगे देव और देवलोक विच्छिन्न हो जाते हैं । आर्यो ! यह बात सर्वथा सत्य है। ११. तए णं ते समणोवासगा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमढे सोच्चा निसम्म १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. २, पृ. ५५५
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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