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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
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पर तुम हमारे कुल में केतु - ( ध्वज) समान, कुल के दीपक, कुल में पर्वततुल्य, कुल का यश बढ़ाने वाले, कुल के आधार, कुल में वृक्ष समान, कुल की वृद्धि करने वाले, सुकुमाल हाथ-पैर वाले, अंगहीनता रहित, परिपूर्ण पंचेन्द्रिययुक्त शरीर वाले, यावत् चन्द्रमा के समान सौम्य आकृति वाले, कान्त, प्रियदर्शन, सुरूप एवं देवकुमार के समान कान्ति वाले पुत्र को जन्म दोगी।"
वह बालक भी बालभाव से मुक्त होकर विज्ञ और कलादि में परिपक्व (परिणत) होगा । यौवन प्राप्त होते ही वह शूरवीर, पराक्रमी तथा विस्तीर्ण एवं विपुल बल (सैन्य) और वाहन वाला राज्याधिपति राजा होगा । अतः देवी! तुमने उदार (प्रधान) स्वप्न देखा है, यावत् देवी ! तुमने आरोग्य, तुष्टि यावत् मंगलकारक स्वप्न देखा है, इस प्रकार बल राजा ने प्रभावती देवी को इष्ट यावत् मधुर वचनों से वही बात दो बार और तीन बार कही ।
विवेचन — प्रभावती को राजा द्वारा स्वप्नफलकथन प्रस्तुत २५ वें सूत्र में प्रभावती रानी से स्वप्नवर्णन सुनकर राजा ने उसे विस्तार से स्वप्नफल बताया है, विशेषत: तेजस्वी पुत्रलाभसूचक फल का प्रतिपादन किया है ।
कठिन शब्दों का भावार्थ — चंचुमालइयतणू— उसका शरीर पुलकित हो उठा । बुद्धिविन्नाणेणऔत्पत्तिकी आदि बुद्धिरूप विज्ञान से । साभाविएण — स्वाभाविक । अत्थोग्गहणं - अर्थात्रग्रहणफलनिश्चय । कल्लाण - अर्थ ( प्रयोजन) की प्राप्तिरूप, मंगल्ल — अनर्थप्रतिघात रूप । कुलकेउं— कुलध्वजरूप । कुलदीवं— कुल में दीपक के समान प्रकाशक । कुलपव्वयं— कुल में पर्वत के समान स्थिर आश्रय वाला। कुलवडेंसयंकुल का अवतंसक— शेखर, कुल के वृक्ष के तुल्य आश्रयदाता । विन्नायपरिणयमित्ते — विज्ञ और कलादि में परिणत (परिपक्व ) मात्र । रज्जवई— राज्यपति अर्थात् — स्वतंत्र राजा । प्रभावती द्वारा स्वप्नफल स्वीकार और जागरिका
२६. तए णं सा पभावती देवी बलस्स रण्णो अंतियं एयमट्ठे सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ट० करयल जाव एवं वयासी—' एवमेयं देवाणुप्पिया !, तहमेयं देवाणुप्पिया !, अवितहमेयं देवाणुप्पिया !, भसंदिद्धमेयं देवाणुप्पिया ! इच्छियमेयं देवाणुप्पिया !, पडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया !, इच्छियपडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया!, से जहेयं तुब्भे वदह' त्ति कट्टु तं सुविणे सम्मं पडिच्छइ, तं पडि० २ बलेण रण्णा अब्भणुण्णाया समाणी णाणामणि- रयणभत्तिचित्ताओ भद्दासणाओ अब्भुट्ठेइ, अ० २ अतुरियमचवल जाव गतीए जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, ते० उ० २ सयणिज्जंसि निसीयति, नि० २ एवं वदासी—'मा में से उत्तमे पहाणे मंगल्ले सुविणे अन्नेहिं पावसुविणेहिं पडिहम्मिस्सइ' त्ति कट्टु देवगुरुजण-संबद्धाहिं पसत्थाहिं मंगल्लाहिं धम्मियाहिं कहाहिं सुविणजागरियं पडिजागरमाणी पडिजागरमाणी विहरति ।
[२६] तदनन्तर वह प्रभावती रानी, बल राजा से इस बात (स्वप्नफल) को सुन कर, हृदय में धारण
१. वियाहपण्णत्तिसुतं (मूलपाठ - टिप्पण), भा. २, पृ. ५३९
२. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५४१