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________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-११ ७३ प्रशस्त लक्षण वाली विस्तीर्ण केसर की जटा से सुशोभित था। वह सिंह अपनी सुनिर्मित, सुन्दर एवं उन्नत पूंछ को (पृथ्वी पर) फटकारता हुआ, सौम्य आकृति वाला, लीला करता हुआ, जंभाई लेता हुआ, गगनतल से उतरता हुआ तथा अपने मुख-कमल-सरोवर में प्रवेश करता हुआ दिखाई दिया। स्वप्न में ऐसे सिंह को देख कर रानी जागृत हुई। विवेचन—वासगृहस्थित शयनीय वर्णनपूर्वक प्रभावती द्वारा सिंह के स्वप्न को देखने का वर्णन—प्रस्तुत २३ वें सूत्र में तीन तथ्यों का वर्णन किया है—(१) प्रभावती रानी का वासगृह, (२) शय्या एवं (३) सिंहस्वप्न-दर्शन।' ___ कठिन शब्दों का भावार्थ—सचित्तकर्म—चित्रकर्म-युक्त। दूमियघट्टमढे—सफेदी किये हुए एवं घिस कर चिकने किये हुए। उल्लोग—ऊपर का भाग। चिल्लियतले-चमकीला नीचे का भाग। मणिरतणपणासियंधकारे–मणियों और रत्नों के प्रकाश से अन्धकार नष्ट कर दिया था। सालिंगण-वट्टिए—शरीरप्रमाण उपधान से युक्त। पंचवण्ण-सरस-सुरभि-मुक्क-पुष्फपुंजोवयारकलिए-पांच वर्ण के सरस सुगन्धित पुष्पपुंज के उपचार से युक्त। कालागुरु-पवरकुंदुरुक्क-तुरुक्कधूव-मघ-मघंतगंधधुद्धताभिरामे—काला अगर, श्रेष्ठ कुन्दरुक्क (चीड़ा) एवं तुरुष्क (लोभान) के धूप की महकती हुई गन्ध से उड़ती हुई वायु से अभिराम। उभओ बिब्बोयणे—दोनों और तकिये रखे हुए थे। गंगापुलिण-वालुय-उद्दाल-सालिसए– गंगा के पुलिन (तट) की बालू के फिसलन (पैर लगते ही नीचे धंस जाने) की तरह अत्यन्त कोमल। ओयविय-खोमिय-दुगुल्ल-पट्ट-पलिच्छायणे—सुसंस्कारित रेशमी दुकूलपट से आच्छादित। रत्तंसुयसंवुए-रक्तांशुक की मच्छरदानी से ढकी हुई। हार-रयय-खीरसागर-ससंककिरण-दगरयरययमहासेलपंडुरतरोरु-रमणिज्जपेच्छणिजं-मुक्ताहार, रजत, क्षीरसागर, चन्द्रकिरण, जलकण एवं रजतमहाशैल के समान पाण्डुर (श्वेत वर्ण), अतएव विशाल, रमणीय और दर्शनीय । थिरलट्ठ-पउट्ठ-वट्ट-पीवरसुसिलिट्ठ-विसिट्ठ-तिक्ख-दाढा-विडंबितमुहं—उसका स्थिर एवं सुन्दर प्रकोष्ठ था; तथा वह गोल, पुष्ट सुश्लिष्ट, विशिष्ट और तीक्ष्ण दाढों से युक्त मुख को फाड़े हुए था। परिकम्मिय-जच्च-कमल-कोमलमाइय-सोभंत-लट्ठ-उटुं-उसका होठ सुसंस्कारित जातिमान कोमल, कमल के समान, प्रमाणोपेत, सुन्दर एवं सुशोभित था। रत्तुप्पल-पत्त-मउय-सुकुमाल-तालु-जीहं—उसका तालु और जिह्वा रक्तकमल-पत्र के समान कोमल (मृदु) एवं सुकुमाल थी। मूसागय-पवरकणग-तावित-आवत्तायंत-वट्ट-तडि-विमल-सरिसनयणं-उसके नयन मूस में रहे हुए तथा अग्नि में तपाए हुए तथा आवर्त करते हुए उत्तम स्वर्ण के समान वर्ण वाले, गोल तथा बिजली की चमक के समान थे। विसाल-पीवरोरु-पडिपुण्ण-विपुलखंधं-वह विशाल एवं पुष्ट जंघाओं वाला तथा परिपूर्ण विपुल स्कन्ध (कंधों) वाला था। मिउ-विसद-सुहम-लक्खण-पसत्थवित्थिण्ण-केसरसडोवसोभियं वह कोमल, विशद, सूक्ष्म एवं प्रशस्तलक्षण वाली; विशाल केसर जटाओं से सुशोभित था। ऊसिय-सुनिम्मित-सुजात-अप्फोडितणंगूलं—अपनी सुनिर्मित, सुन्दर एवं उन्नत पूंछ को १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. २, पृ. ५३७-५३८
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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