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________________ ४६ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र बहुत जीव होते हैं, संयम को प्रतिपद्यमान एकादि जीव होते हैं, इसलिए तीन भंग घटित होते हैं। संयतद्वार में केवल दो ही पद कहने चाहिए-जीवपद और मनुष्यपद, क्योंकि दूसरे जीवों में संयतत्व का अभाव है। असंयत जीवों के एकवचन और बहुवचन को लेकर दो दण्डक कहने चाहिए। उनमें से बहुवचन सम्बन्धी द्वितीय दण्डक में तीन भंग होते हैं, क्योंकि असंयतत्व को प्राप्त बहुत जीव होते हैं तथा संयतत्व से भ्रष्ट होकर असंयतत्व को प्राप्त करते हुए एकादि जीव होते हैं, इसलिए उनमें तीन भंग घटित हो सकते हैं। एकेन्द्रिय जीवों में पूवोक्त युक्ति के अनुसार 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश'-यह एक ही भंग पाया जाता है। इस असंयत प्रकरण में सिद्धपद' नहीं कहना चाहिए; क्योंकि सिद्धों में असंयतत्व नहीं होता। संयतासंयत पद' में भी एकवचन-बहुवचन को लेकर दो दण्डक कहने चाहिए। उनमें से दूसरे दण्डक में बहुवचन की अपेक्षा पूर्वोक्त तीन भंग कहने चाहिए; क्योंकि संयतासंयत-देशविरतिपन को प्राप्त बहुत जीव होते हैं, और उससे भ्रष्ट होकर या असंयम का त्याग कर संयतासंयतत्व को प्राप्त होते हुए एकादि जीव होते हैं। अत: तीन भंग घटित होते हैं। इस संयतासंयतद्वार में भी जीव, पंचेन्द्रियतिर्यंञ्च और मनुष्य, ये तीन पद ही कहने चाहिए; क्योंकि इन तीनं पदों के अतिरिक्त अन्य जीवों में संयतासंयतत्व नहीं पाया जाता। नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयतद्वार में जीव और सिद्ध, ये दो पद ही कहने चाहिए, भंग भी पूर्वोक्त तीन होते हैं। ८. कषायद्वार – सकषायी जीवों में तीन भंग पाए जाते हैं, यथा-(१) सकषायी जीव सदा अवस्थित होने से 'सप्रदेश' होते हैं, यह प्रथम भंग; (२) उपशमश्रेणी से गिर कर सकषायावस्था को प्राप्त होते हुए एकादि जीव पाए जाते हैं इसलिए बहुत सप्रदेश और एक अप्रदेश' यह दूसरा भंग तथा 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश' यह तीसरा भंग । नैरयिकादि में तीन भंग पाए जाते हैं। एकेन्द्रिय जीवों में अभंग है—अर्थात् . उनमें अनेक भंग नहीं, किन्तु 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश' यह एक ही भंग पाया जाता है; क्योंकि एकेन्द्रिय जीवों में बहुतजीव 'अवस्थित' और बहुत जीव 'उत्पद्यमान' पाए जाते हैं। सकषायी द्वार में सिद्ध पद नहीं कहना चाहिए; क्योंकि सिद्ध कषाय रहित होते हैं। इसी तरह क्रोधादि कषायों में कहना चाहिए। क्रोधकषाय के एकवचन-बहुवचन-दण्डकद्वय में से दूसरे दण्डक में बहुवचन से जीवपद में और पृथ्वीकायादि पदों में बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश', यह एक भंग ही कहना चाहिए; क्योंकि मान, माया और लोभ से निवृत्त हो कर क्रोधकषाय को प्राप्त होते हुए जीव अनन्त होने से यहाँ एकादि का सम्भव नहीं है, इसलिए सकषायी जीवों की तरह तीन भंग नहीं हो सकते। शेष (एकवचन) में तीन कहने चाहिए। देवपद में देवों सम्बन्धी तेरह ही दण्डकों में छह भंग कहने चाहिए; क्योंकि उनमें क्रोधकषाय के उदयवाले जीव अल्प होने से एकत्व और बहुत्व, दोनों संभव हैं; अतः सप्रदेशत्व-अप्रदेशत्व दोनों संभव हैं। मानकषाय और मायाकषाय वाले जीवों के भी एकवचन-बहुवचन को लेकर दण्डकद्वय क्रोधकषाय की तरह कहने चाहिए। उनमें से दूसरे दण्डक में नैरयिकों और देवों में ६ भंग होते हैं, क्योंकि मान और माया के उदय वाले जीव थोड़े ही पाये जाते हैं। लोभकषाय का कथन क्रोधकषाय की तरह कहना चाहिए। लोभकषाय के उदय वाले नैरयिक अल्प होने से उनमें ६ भंग पाये जाते हैं। निष्कर्ष यह है कि देवों में लोभ बहुत होता है और नैरयिकों में क्रोध अधिक। इसलिए क्रोध, मान और माया में देवों के ६ भंग और मान, माया और लोभ में नैरयिकों के ६ भंग कहने चाहिए। अकषायीद्वार के भी एकवचन और बहुवचन, ये दण्डकद्वय होते हैं। उनमें
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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